chandraprabha kumar

Classics

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chandraprabha kumar

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अनामा शान्ता

अनामा शान्ता

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 नारी को प्राचीन समय से ही कोई सामाजिक पहिचान स्वतंत्र रूप से नहीं मिली। वे किसी पुरूष की कन्या, या पत्नी, या माता के रूप में ही जानी जाती रहीं । कितने ही उच्च कुल में जन्म लेने के बाद भी वे अनाम ही रह जाती हैं। ऐसा ही श्रीराम की बड़ी बहिन शान्ता के विषय में भी है। प्रख्यात रघुवंश में उत्पन्न होने के बाद भी आज तक उनका अस्तित्व लोकमानस में अज्ञात है।तुलसीदास जी ने अपने रामचरितमानस में उनकी चर्चा तक नहीं की है जबकि शान्ता के पति ऋष्यश्रृंग ऋषि ने ही अयोध्यापति महाराज दशरथ को पुत्रेष्टि यज्ञ कराया था ,जिससे उन्हें राम आदि चार पुत्रों की प्राप्ति हुई थी।शान्ता की ही वजह से अंगराज रोमपाद के प्रति विभाण्डक ऋषि का कोप शान्त हुआ था और ऋष्यश्रृंग प्रसन्न हुए थे। 

 वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि ऋषि ऋष्यश्रृंग राजा दशरथके जामाता थे। सुमंत्र राजा दशरथ से कहते हैं कि “ आपके जामाता महामुनि ऋष्यश्रृंग आपको पुत्रेष्टि यज्ञ करायेंगे तो आपको पुत्रों की प्राप्ति होगी “।”ऋष्यश्रृंगस्तु जामाता पुत्रांस्तव विधास्यति “(दे.१.९.१९)।

भागवत (९.२३.७-१०)से पता चलता है कि अंगदेश के राजा रोमपाद के नाम से प्रसिद्ध थे। इनके मित्र अयोध्याधिपति महाराज दशरथ थे। रोमपाद को कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये दशरथ ने उन्हें अपनी शान्ता नाम की कन्या गोद दे दी। शान्ता का विवाह ऋष्यश्रृंग ऋषि से हुआ। रोमपाद को लोमपाद भी कहते थे। 

 अयोध्या नरेश दशरथ की पुत्री शान्ता का उल्लेख विष्णु पुराण,भवभूति के उत्तररामचरित, स्कन्द पुराण, आनन्द रामायण, असमिया बालकॉंड ,मराठी भावार्थ रामायण में मिलता है। बलराम दास रामायण में शान्ता कौशल्या व दशरथ की पुत्री हैं। पर कृतिवास (१,२९) के अनुसार शान्ता दशरथ की एक अन्य पत्नी (भार्गव राजा की पुत्री ) की कन्या थी। 

ऋष्यश्रृंग काश्यप ऋषि विभाण्डक के पुत्र थे और बड़े तपस्वी व संयतेन्द्रिय थे। परम तेजस्वी और समर्थ विभाण्डक कुमार मृगी से उत्पन्न हुए थे और उनके सिर पर एक सींग था , इससे वे ऋष्यश्रृंग नाम से प्रसिद्ध हुए। ऋष्य का अर्थ ‘सफ़ेद पैरों वाला बारहसिंघा हरिण’होता है, श्रृंग का अर्थ ‘सींग’ है। 

विभाण्डक ऋषि परम तेजस्वी थे और उनका वीर्य अमोघ था ,एक बार वे एक सरोवर पर स्नान करने गये। वहॉं उर्वशी अप्सरा को देखकर वह जल में ही स्खलित हो गये। इतने में ही वहॉं एक प्यासी मृगी आई और वह जल पी गई। वह मृगी वास्तव में एक देवकन्या थी। वह शापवश मृगी हो गई थी और मुनिपुत्र को जन्म देने पर वह शाप से छूट गई। इसलिये ऋष्यश्रृंग मृगी पुत्र हुए।     

विभाण्डक ऋषि ने जंगल में ही अपने एकमात्र पुत्र ऋष्यश्रृंग का पालन पोषण किया। जब तक ऋष्यश्रृंग वयस्क नहीं हुए तब तक इन्होंने किसी दूसरे मनुष्य को नहीं देखा, स्त्रियों के नाम तक से अनभिज्ञ थे। जब अंगदेश अनावृष्टि के कारण बर्बाद सा हो गया, तो उसके राजा रोमपाद ने ब्राह्मणों के परामर्शानुसार ऋष्यश्रृंग को कुछ कन्याओं द्वारा बुलाया और अपनी पुत्री शान्ता का इनसे विवाह कर दिया। शान्ता रोमपाद की दत्तक पुत्री थी, इनके वास्तविक पिता दशरथ थे।ऋष्यश्रृंग आते ही ख़ुश हो गये। उनके तप के प्रभाव से वर्षा हुई। वर्षा से खेती अच्छी तरह लहलहाती उठी।  प्रचण्ड कोपधारी महात्मा विभाण्डक जब फलमूल लेकर अपने आश्रम मे आये तो उन्हें अपना इकलौता पुत्र दिखाई नहीं दिया। तो वे क्रोध से भर गये। क्रोध से उनका हृदय विदीर्ण होने लगा। तब वे अंगदेश की चम्पानगरी की ओर चल दिये मानो अंगराज को उनके साम्राज्य और नगर सहित भस्म कर देना चाहते हों। रास्ते में राजा की ओर से बैठाये गये ग्वालों ने उनका बड़ा सत्कार किया,स्वादिष्ट भोजन कराया और कहा कि यह सब ऐश्वर्य आपके ही पुत्र का है । मधुर वचन सुनने से उनका उग्र कोप शान्त हुआ। 

राजा रोमपाद ने विधिवत् उनकी पूजा की। उन्होंने देखा कि उनका पुत्र वहॉं वैभवके साथ विद्यमान है। अपने पुत्र को ऐश्वर्य से सम्पन्न देखा , उसे अनेकों ग्राम और घोष मिले देखे। । पुत्र के पास ही उन्होंने पुत्रवधू शान्ता को देखा जो विद्युत् के समान उद्भासित हो रही थी। विद्युत के समान चमचमाती पुत्रवधू को देख उनका सारा क्रोध उतर गया। फिर तो जिसमें राजा रोमपाद की विशेष प्रसन्नता थी, वही काम उन्होंने किया। पुत्र को वहीं छोड़ उन्होंने उससे कहा,” जब तुम्हारे पुत्र उत्पन्न हो जाय तो राजा का सब प्रकार मन रखकर वन में ही चले आना। “

शान्ता भी सब प्रकार अपने पति के अनुकूल आचरण करने वाली थी। जिस प्रकार सौभाग्यवती अरुन्धती वशिष्ठ की, लोपानुद्रा अगस्त्य की और दमयन्ती नल की सेवा करती थी, उसी प्रकार शान्ता ने भी अपने पति का सेवा की। 

सुमन्त्र के परामर्श से ऋषि ऋष्यश्रृंग को पुत्रेष्टि यज्ञ हेतु बुलाने के लिये राजा दशरथ स्वयं अंगदेश में अपने मित्र राजा रोमपाद के पास गये थे, ऐसा वाल्मीकि रामायण से पता चलता है।राजा रोमपाद ने अत्यन्त प्रसन्न होकर मित्रता के नाते महाराज दशरथ का विशेष रूप से पूजन किया। और बुद्धिमान् ऋषिकुमार ऋष्यश्रृंग को राजा के साथ अपनी मित्रता की बात बताई। रामायण के उदीच्य पाठों में ( दे. १.११.२५ ) रोमपाद ऋष्यश्रृंग से दशरथ के विषय में यह भी कहते हैं-“ मुझ नि:सन्तान को राजा ने अपनी वरवर्णिनी पुत्री शान्ता दी थी ,अब पुत्रेष्टि यज्ञ हेतु बुलाने आये हैं—

“अनेन मेऽनपत्याय दत्तयं वरवर्णिनी ।

याचते पुत्रकृत्याय शान्ता प्रियत्मात्मजा।।”

राजा दशरथ ने अंगराज से कहा-“पुत्री शान्ता अपने पति के साथ मेरे नगर में पदार्पण करे”। 

रोमपाद ने बहुत अच्छा कहकर बुद्धिमान महर्षि का जाना स्वीकार कर लिया और ऋष्यश्रृंग से कहा-“विप्रवर ! आप शान्ता के साथ महाराज दशरथ के यहॉं जाइये ।”

राजा की आज्ञा पाकर उन ऋषिपुत्र ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा दशरथ को अपने चलने की स्वीकृति दे दी।       राजा रोमपाद की अनुमति ले ऋष्यश्रृंग ने पत्नी के साथ वहॉं से प्रस्थान किया। राजा दशरथ ने शंख और दुन्दिभी आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ ऋष्यश्रृंग को आगे करते अपने सजे-सजाये नगर में प्रवेश किया। राजा ने ऋष्यश्रृंग को ले जाकर अन्त:पुर में ठहराया , शास्त्रविधि से उनका पूजन किया और अपने को कृतकृत्य माना । विशाललोचना शान्ता को इस प्रकार अपने पति के साथ उपस्थित देख अन्त:पुर की सभी रानियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्दमग्न हो गईं। 

रंगनाथ रामायण से पता चलता है कि उसी समय कौसल्या आदि रानियों ने राजा की आज्ञा लेकर बड़े हर्ष से शान्ता देवी को श्रेष्ठ भूषण, वस्त्र, माला आदि देकर बहुविधि से उनका सत्कार किया। 

राजा दशरथ ने शुभ समय में यज्ञ आरम्भ करने का विचार किया ,तत्पश्चात् देवोपम कान्तिवाले ऋष्यश्रृंग ऋषि को सिर झुकाकर प्रणाम किया और वंशपरम्परा की रक्षा के लिये पुत्रप्राप्ति के निमित्त यज्ञ कराने के उद्देश्य से उनका वरण किया। ऋष्यश्रृंग ने पहिले अश्वमेध यज्ञ कराया , फिर पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिसके फलस्वरूप राजा दशरथ को राम समेत चार पुत्रों की प्राप्ति हुई। पुत्रेष्टि यज्ञ के उपरान्त राजा द्वारा अत्यन्त सम्मानित हो ऋष्यश्रृंग मुनि भी शान्ता के साथ अपने स्थान को चले गये। 

शान्ता ने अयोध्यापति राजा दशरथ और अंगराज राजा रोमपाद दोनों का ही उपकार किया और मुनि ऋष्यश्रृंग की भी सेवा की। पर उसका योगदान विस्मृत कर दिया गया। उसकी सहनशीलता अद्भुत् थी। बिना उसकी इच्छा जाने उसे दूसरे को गोद दे दिया गया। राजमहल की सुख सुविधा मे पली कन्या को बिना उसकी इच्छा जाने वनवासी ऋषि से विवाह कर दान कर दिया गया। उसने मौन रहकर ही सब कुछ शालीनता से सहा और निभाया।


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