अमर जवान
अमर जवान
"माँ ! जल्दी चलो । देर हो रही, पापा से मिलने जाना है।" विवेक ने अपनी माँ को आवाज़ लगायी। आज विवेक एम. बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी करने के बाद पहली बार अपने पापा से मिलने जा रहा था। उसके पापा सेना में जवान थे और उन्होंने कारगिल युद्ध में देश की तरफ से लड़ाई लड़ी थी।क्या अदम्य साहस का परिचय दिया था।
अभी कुछ महीने पहले की ही बात है जब पुलवामा में आतंकी हमला हुआ था, विवेक बहुत दुःखी था ।और वह अपने मेडिकल कॉलेज के पास के सी. आर.पी.एफ . प्रशिक्षण केंद्र के शोक सभा में वीर शहीदों को पुष्पांजलि अर्पित करने के लिए भी गया था । एक जवान के बंदूक पर टोपी रखी हुई थी और उसपर फूल चढ़ाया हुआ था । सभी ग़मगीन माहौल में श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे थे और इधर विवेक के लिए आँसुओं को रोक पाना नामुमकिन सा हो गया था। विवेक को ऐसा लग रहा था मानो कोई अपना जग छोड़ के चला गया है।अभी उसके दिमाग़ में यही सब चल रहा था कि माँ की आवाज़ ने उसका ध्यान खींच लिया।
"अच्छा बेटा! वो बेसन के लड्डू रख लो।" विवेक को पता था कि पापा को माँ के हाथ के बने बेसन के लड्डू बहुत पसंद थे। विवेक के नानाजी भी साथ में जाने वाले थे। सभी गाड़ी में बैठ गए। हर एक दो मिन
ट पर विवेक माँ के चेहरे को निहार लेता था। माँ गुमसुम सी थी। विवेक को याद हो आता है कि कैसे माँ ने उसे अकेले ही पाला- पोसा बड़ा किया , सारी घर-गृहस्थी संभाली। आज वो जो कुछ भी था अपनी माँ के बदौलत ही था। शायद ही वो कभी अपनी माँ के ऋण से उऋण हो पाए।
तभी गाड़ी रुकी। सभी गाड़ी से नीचे उतरे। और सभी चबूतरे की ओर चल दिये । वहाँ एक आदमक़द प्रतिमा थी..सैनिक की..अमर जवान की... विवेक के पापा की। आज विवेक के पापा का जन्मदिन था, जिसे सभी हर वर्ष मानते थे। माँ ने प्रतिमा को चंदन लगाया। विवेक ने प्रतिमा को माला पहनाई और लड्डू चढ़ाये। माँ आरती का दिया जलाने लगी। दिया जलाते हुए माँ के आँखों से आँसू की बूंदे दिये के तेल में न जाने कब जा मिली,पता न चला । नानाजी ने तब उनका ढाढ़स बढ़ाया।
आरती उतारते हुए विवेक ने प्रण कर लिया था कि जिस तरह से उसके पिताजी ने देश की सेवा करते हुए अमरता को प्राप्त किया ठीक वैसे ही वह भारतीय सेना के डॉक्टर के रूप में देश और देश के जवानों की आजीवन सेवा करेगा।