अमल
अमल
झारखंड का जिला गढ़वा जनपद मुख्यालय से बीस किलोमीटर पर स्थित है बागौन गांव जनसंख्या जाती एवं विकास के प्रत्येक मानकों पर अत्यन्त पिछड़ा है।
वर्ष उन्नीस सौ अस्सी पचासी तक कुल तीन स्नातक पूरे गांव में थे गांव की आबादी में मुसलमान, यादव ,मल्लाह ,राजभर सात आठ राजपूत एवं कुछ अन्य जातीया थी गांव पिछड़ा होने के बावजूद भी शांति प्रिय और भाई चारे का मिशाल था हर जाति धर्म का इंसान एक दूसरे के सुख दुःख में बराबर का हिस्सेदार था किसी को किसी से शिकायत नहीं थी ।
गांव के राजपूत परिवार के ठाकुर नवरतन सिंह ब्रिटिश काल में सिपाही पद पर भर्ती हुए और भारत कि आजादी मिलने तक दरोगा यानी थानेदार पद तक पदोन्नति से पहुंच चुके थे ।
नव रतन तीन बेटे थे सबसे बड़े बेटे का नाम था भारत दूसरे का भाल चन्द्र तीसरे का विक्रांत नवरतन सिंह शिक्षा के महत्व से वाकिफ थे अतः अपने बेटों को पढ़ाने लिखाने के लिए सभी उपलब्ध व्यवस्थाएं उपलब्ध कराई लेकिन कहते है कि प्रारब्ध भी जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं अत नवरतन सिंह के लाख कोशिशों के बाद भी उनका बड़ा बेटा भारत अधिक पढ़ लिख नहीं सका।
नवरतन सिंह के पास अच्छी खासी खेती थी उन्होंने बड़े बेटे को गांव की खेती बारी कि जिम्मेदारी दे दी भारत सिंह गांव आकर सबसे पहले गांव के जातीय समीकरण का अध्ययन किया और दिमाग लगाना शुरू किए पढ़ा लिखा कम होने के बावजूद भारत को राजनीति में अच्छी खासी रुचि थी जिसका शुभारम्भ भारत ने अपने गांव बागौन् से किया और ब्रिटिश तर्ज पर फुट डालो और राज करो कि नीति अपनाई जो सफल हुई और भारत गांव का प्रधान बन गया।
प्रधान बनने के बाद भारत का एकमात्र उद्देश्य गवाई राजनीति पर अपना वर्चस्व कायम रखना था जिसके लिए एक मात्र हथियार था पूरे गांव को अपने समक्ष नतमस्तक करना जिसके लिए मजबूत हथियार था एक दूसरे को आमने सामने खड़ा कर देना अपने इस उद्देश्य के लिए भारत ने जाती धर्म एवं कुटिल सभी चलो को गांव में चलना शुरू किया हिन्दू मुस्लिम का बखेड़ा शुरू किया परिवारों में भाई भाई को एक दूसरे का प्रतिद्वंदी प्रतिस्पर्धी बना कर खड़ा कर दिया।
हर छोटी बड़ी समस्या विवाद पहले प्रधान होने के नाते भारत के ही पास जाती अवसर का पर्याप्त लाभ उठाकर समयानुसार अपनी रोटी सकते रहते नतीजा यह हुआ कि प्रेम शांति और सौहार्द का गांव बग़ौन घृणित गवई राजनीति का अखाड़ा बन गया और भारत कि प्रधान कि कुर्सी मुस्तकिल हो गई।
कोई चुनौती दे सके गांव में ऐसा कोई बचा ही नहीं सभी अपने ही परिवार एवं जातीय फसादों में फंस कर भारत के पिछलग्गू बन चुके थे भारत निष्कंटक अपना सिक्का पूरे गांव में चलाते।
भारत सिंह कि अगली योजना गांव को हर तरह से अपने शिकंजे में लेना जिसके लिए उन्होंने भाई भाई को लड़ा भिड़ा कर घर घर में एक पक्ष को अपने साथ मिलाना था जिसमें सफल हुए भारत सिंह पूरे गांव के लोग उनके समक्ष पानी भरते अब उन्हें चिंता।
थी तो सिर्फ यह कि भविष्य में भी उनकी सत्ता को कोई चुनौती न दे सके अतः उनकी निगाह गांव के एक एक नौजवान पर थी।
उसी में एक था हाशिम जिसके अब्बू कलकत्ता में कपड़े की फेरी लगाते हाशिम को दिमाग पैदाइशी कुदरती थी उसकी तीक्ष्ण बौद्धिक क्षमता की हनक गांव में ही नहीं पूरे जवार में थी उसने मैट्रिक की परीक्षा में उंसे साबित भी किया और आगे की पढ़ाई करने लगा प्राधन भारत सिंह को हाशिम से भविष्य में खतरा महसूस होने लगा एक तो यदि हाशिम सफल हो गया तो पूरे गांव में हाशिम के नक्शे कदम पर चलने की होड़ लग जायेगी जिससे गांव के नौजवानों की नई पीढ़ी गांव में उनकी सामंती सत्ता को चुनौती मिलने लगेगी अतः उन्होंने येन केन प्रकारेण हासिम को अपने दरबार दब दबे में शामिल करने की जुगात करने लगे जिससे हाशिम बहुत दिनों तक नही बच सका।
प्रधान भारत सिंह ने हाशिम को पहले अपने खास सिपासलाहकार के रूप में सम्मिलित किया और सत्ता के सुखों की अनुभूति शराब शबाब कराने लगे किसी भी युवा मन को आकर्षित करने के लिये पर्याप्त हैं हाशिम भी खुद को बहुत दिनों तक नहीं रोक सका और सत्ता सुख का शौख कब आदत में शुमार हो गया हाशिम के समझ से परे था हाशिम प्राधन के योजन के अनुसार सभी शौक एव नशे का आदि हो चुका था जब प्रधान को यह विश्वास हो गया कि पैदाइशी कुदरती अक्ल की सौगात का युवा हाशिम जिंदगी के सुख भोग के नशे के दल दल में डूब चुका है तब उसे दूध की मख्खी की तरह निकाल कर बाहर कर दिया ।
हाशिम दो हाथ पैर का सलामत आदतन अपाहिज हो चुका था वह सिवा सांस लेने जिसके लिए भी उसे नशे की जरूरत थी कुछ नही कर सकता था और नशे के लिए प्रधान की चाकरी करना आवश्यक था अब हाशिम के लिए पछतावा छोड़ कर कुछ भी हाथ साथ नहीं था लेकिन बेबस विवश लाचार अंधकार एवं दल दल में धंसा सिर्फ यही सोचता #अब पछताए का होत जब चिड़िया चुंग गयी खेत#
