आपसदारी

आपसदारी

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सवेरे जब गाड़ी दादर पहुंची तो अनुराग डिब्बे के सामने ही खड़ा था। दरवाजे से नीचे उतरते ही लपक कर उसने मुझे गले लगा लिया। हंसते बतियाते हम बाहर आए और उसकी गाड़ी में अटैची रखते हुए जब उसे अपने संस्थान के गैस्ट हाउस का पता बताना चाहा तो वह बनावटी गुस्से से बोल पड़ा, ‘‘अब रहने दे अपनी होशियारी। मुझे पता है, तेरे महकमे वालों के इंतजाम, पर यहां तेरे महकमे की नहीं चलेगी। बैठ जा चुपचाप गाड़ी में। आया बड़ा पता बताने वाला।’’ उसके स्वर में एक मीठा उलाहना था, जो मुझे अच्छा लगा। आगे बढ़कर उसने कार का दरवाजा खोला और मुझे बैठने का इशारा कर खुद दूसरी ओर से बैठ गया।

हम दोनों बचपन के दोस्त थे। अनुराग को यह कैसे मंजूर होता कि मैं उसके शहर आऊं और अपने ठहरने का बंदोबस्त कहीं और रक्खूं। यहीं अंधेरी में उसने एक अच्छा मकान ले रखा था। मकान बड़ा न होता तब भी मैं जानता हूं, हमारे पास एक दूसरे के लिए स्पेस की कमी कभी नहीं रही। स्कूल के बाद की पढ़ाई बेशक हम दोनों ने अलग रहकर पूरी की हो, लेकिन सीनियर सेकेण्ड्री तक तो हम साथ ही पढ़े थे, एक क्लास और एक ही सैक्शन में। उसके घर के सभी लोगों से मेरा अपनेपन का रिश्ता था। अनुराग की बहन प्रिया, जो उससे तीन साल छोटी थी, उन दिनों एक कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ती थी। वह मुझे बचपन से ही अच्छी लगती थी। मेरी गहरी दोस्ती भले अनुराग से रही हो, पर घर में आकर्षण की एक वजह प्रिया अवश्‍य रही।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद मैं यहीं लोक प्रसारण माध्यम की नौकरी में लग गया, जिसका एक प्रशिक्षण केन्द्र मुंबई में था। इस बार जब दो सप्‍ताह की ट्रेनिंग के सिलसिले में मेरा मुंबई आने का संयोग बना तो मैंने अनुराग को सूचित कर दिया। अनुराग ने फौरन वापस जवाब भेजा कि वह मुझे रिसीव करने के लिए स्‍टेशन पर मौजूद मिलेगा। जब मैं उसके घर पहुंचा तो परिवार के सब लोगों को देखकर अचंभित रह गया। उस बहुमंजिला इमारत में उनका मकान ग्राउंड फ्लोर पर ही था। घर का दरवाजा प्रिया ने ही खोला था। एक भरी पूरी युवती लग रही थी वह। मुझसे नज़र मिलते ही उसकी आंखों में हल्की सी चमक और मुस्कुराहट तैर गई, लेकिन शुरू के दो दिन तो वह मुझसे कम ही बोली। औपचारिक ही बनी रही। घर में बैठक और डायनिंग रूम के अलावा दो बड़े बैड रूम और एक छोटा गैस्ट रूम था। फिलहाल गैस्ट रूम पर प्रिया का कब्जा था और एक बैड रूम में मां और सोनू सोते थे। मेरे ठहरने का बंदोबस्त अनुराग ने अपने ही कमरे में कर लिया था।

दो तीन दिनों में ही मैं उस परिवार के सदस्य जैसा हो गया और प्रिया की बची खुची शर्म हिचक अपने आप लुप्त हो गई। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि वह अपने बचपन के दिनों को भूली नहीं थी। कई बार उसके साथ पास के बाजार तक घूम फिर आता था और उसने मुझे मुंबई की जीवन शैली की कई ऐसी बातें बताईं, जो मेरी तो कल्पना में ही नहीं थीं, जैसे जवान लड़के लड़कियों का साथ अकेले घूमना यहां आम बात है, जबकि मैं तो उसके साथ बाजार जाते हुए भी संकोच कर रहा था। उसने बताया कि यहां ऐसी कितनी ही स्त्रियां हैं, जो बिना शादी किये अकेले रहना पसंद करती हैं। जिस बिल्डिंग में उनका फ्लैट है, उसमें दो ऐसे जोड़े भी हैं, जो सालों से पति पत्नी की तरह साथ रहते हैं, लेकिन उन्होंने आज तक औपचारिक रूप से शादी नहीं की। यह बात मुझे कुछ अटपटी सी लगी, जबकि प्रिया का नजरिया साफ था, “यह उनकी मर्जी है, उसमें किसी और के ऐतराज का क्या मतलब।” घर से बाहर प्रिया की यह उन्मुक्त सोच मेरे लिए वाकई नयी थी। अनसोचे ही उसके प्रति मेरा आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा था।

रोज मैं शाम को जल्दी घर पहुंच जाता, लेकिन कभी देरी भी हो जाती। तीसरे दिन शाम को जब देर से घर पहुंचा तो पता लगा कि उसी शाम अनुराग को अचानक दिल्ली जाना पड़ गया था। इस खबर से उत्साह यों ही ठंडा हो गया। दिन भर की माथा पच्ची और लोकल ट्रेन की यात्रा के कारण थोड़ी थकान भी थी, इसलिए मैं कमरे में आकर लेट गया। शायद मुझे झपकी आ गयी थी। थोड़ी देर बाद खुले दरवाजे पर हल्की दस्तक हुई तो मेरी आंख खुल गई। दरवाजे पर प्रिया खड़ी दीखी। उसने अन्दर आते पूछा, ‘‘क्या हुआ, सो कैसे गये। तबियत तो ठीक है न।’’

‘‘हां, मैं ठीक हूं। यों ही दिन भर के काम और लोकल की यात्रा के कारण थोड़ी थकान हो रही थी।’’ मैंने उठकर संभलते हुए जवाब दिया।

‘‘चाय बना दूं थोड़ी, सुस्ती उड़ जाएगी।’’ उसने हमदर्दी जताते हुए कहा।

‘‘नहीं नहीं, चाय की इस वक्त ज़रूरत नहीं। बस अभी मैं बाहर आता हूं। सोचता हूं, नहा लूं, उससे थोड़ी स्फूर्ति आ जाएगी।’’ कहकर मैं बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। मुझे नहाने के लिए तैयार होते देख वह वापस लौट गयी।

जब नहाकर कमरे से बाहर आया तो टेबल पर खाना लग चुका था। अनुराग की मां ने अपने साथ मेरा भी खाना लगवा लिया था। मां बेटी ने खूब चाव से अपनी पसंद की सब्जियां बनाई थी और पूरी मनुहार करके खाना खिलाया। मां को शायद डर था कि अनुराग के घर से बाहर होने की वजह से मैं कहीं अनावश्यक संकोच न करने लगूं।

खाने के बाद प्रिया अपने कंप्यूटर पर मीडिया का एक प्रोजक्ट लेकर बैठ गई, उसने सोनू और मुझे भी अपनी मदद के लिए बुला लिया। सवा दस के आस पास सोनू तो मां के पास जाकर सो गया, लेकिन मैं ग्यारह बजे तक प्रिया के साथ लगा रहा। घर में सबको सोया देखकर मैं भी उसके कमरे से बाहर निकल आया और कुछ देर ड्राइंग रूम में बैठ गया। ड्राइंग रूम में लगे टी.वी. को ऑन किया ही था कि प्रिया पानी का ग्लास लेकर आ गई। उसने ग्लास मेरी ओर बढ़ाते हुए अनायास ही पूछ लिया, ‘‘कॉफी पीना पसंद करेंगे।’’

‘‘हां, पी सकते हैं, लेकिन आधा ही कप।’’ मैंने उसका मन रखने के लिए हामी भर दी, जबकि चाय या कॉफी की कोई खास तलब मुझे नहीं थी। वह रसोई में कॉफी बनाने लौट गई। मैं भी टी.वी. स्क्रीन की ओर देखते हुए रिमोट से चैनल बदलता रहा। एक न्यूज चैनल पर समाचार देखने के लिए कुछ देर रुक गया। एक न्यूज स्टोरी पूरी हुई ही थी कि तभी प्रिया कॉफी लेकर आ गई। कॉफी का प्याला मुझे पकड़ाकर अपना हाथ में लिये वह मुझसे दूर एक सिंगल सोफे पर जाकर बैठ गई।

 टी.वी. की आवाज धीमी कर मैंने उससे मांजी के बारे में पूछ लिया। उसने बताया कि वे सोनू के पास सो रही हैं। बातचीत के लिए आवाज धीमी रखने की गरज़ से मैंने उसे अपने नजदीक आकर बैठने का आग्रह किया। वह हिचकिचाते हुए अपनी जगह से उठकर मेरे करीब लगे दूसरे सिंगल सोफे पर आकर बैठ गई। यहां आने के बाद प्रिया के साथ घर में अकेले इस तरह बात करने का यह पहला ही मौका था और मन में कहीं यह आशंका भी कि वह मेरी किसी बात का बुरा न मान जाए। मैंने अपना मन पक्का करके आखिर उसे यह बता ही दिया कि मैं उससे कितना लगाव रखता हूं। मेरी बात सुनकर एकबारगी तो वह मेरी ओर देखती ही रह गई। फिर मुस्कुराती हुई अपने आप में खो गई। मुझे यह देखकर तसल्ली हुई कि उसने मेरी बात का बुरा नहीं माना, बल्कि एक तरह से अनुकूल रुख ही जाहिर किया।

डायनिंग हॉल और ड्राइंग रूम के बीच की खुली जगह को जाली के पर्दे से अलग कर दिया गया था। पर्दे से छनकर आती रोशनी से ड्राइंगरूम में पर्याप्त उजास था, इसलिए वहां की बत्ती जलाने की जरूरत नहीं पड़ी। टी.वी. स्क्रीन का प्रकाश भी कमरे को अच्छा खासा रौशन किये था। उस हल्के उजास में प्रिया की आंखों में अपने लिए एक अमूर्त सा लगाव मैं जरूर महसूस करने लगा था। ऐसे ही कोमल क्षणों में जब पहली बार मैंने उसकी ओर अपना हाथ बढ़ाया तो उसने भी अपना हाथ मेरी हथेली पर रख दिया। कच्चे नेह में डूबी हमारी ऊष्मा को अब किसी अतिरिक्त भाषा की जरूरत नहीं थी। मैंने एक कदम और बढ़ाते हुए उसके हाथ को अपने होठों के नजदीक लाकर ज्यों ही छूने की कोशिश की, उसने धीरे से अपना हाथ वापस खींच लिया। गजब का आत्मसंयम था उसमें। बहुत नपे तुले शब्‍दों में उसने मुझे यह जता दिया कि इस तरह मां और भाई का विश्‍वास तोड़ना उचित नहीं होगा। मैंने उसे भरोसा दिया कि मैं इसका पूरा ध्यान रखूंगा।

 इस पहले इजहार के बाद आपस में हल्का अरस परस तो चलता रहा, लेकिन आवेग में कोई कदम बढ़ाने की नौबत कभी नहीं आई। अनुराग के वापस आने से एक रात पहले उसने मुझे यह बात कहकर और असमंजस में डाल दिया कि मैं अभी अनुराग या मां से अपने रिश्ते को लेकर कोई बात न करूं। पहले वह खुद अपने घर में बात करके उनका रुझान जानेगी। उनका अनुकूल रुख होने पर ही मैं अनुराग और अपने घरवालों से आगे बात करूं तो ज्यादा बेहतर होगा।

प्रिया ने अपनी बातचीत के दौरान एक अप्रत्याशित जानकारी यह भी दी कि उसके जोधपुर वाले ताऊजी कुछ महीने पहले उसके लिए बीकानेर का एक रिश्ता लेकर आए थे। उसकी मां तो उस रिश्ते के लिए तैयार हो गई और बात तकरीबन पक्की ही थी, लेकिन अनुराग को जब यह जानकारी मिली कि उस लड़के की यह दूसरी शादी है और उसकी पहली पत्नी ने आत्मघात किया था, तो वह इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुआ। बाद में ताऊजी खुद यहां सफाई देने के लिए आए थे कि वह लड़की खुद पहले से ही किसी दूसरे को चाहती थी और उसके घरवालों ने धोखे से इस लड़के के गले बांध दी। शायद इसी कारण उसने आत्मघात कर लिया। पुलिस ने भी इस बात को मान लिया है। इसमें उस बिचारे का क्या कसूर है, वह तो बहुत सीधा-सादा लड़का है। लेकिन अनुराग ने उनकी कोई बात नहीं मानी। उसका एक ही तर्क था कि ये सारी बातें रिश्ता तय करने से पहले साफ होनी जरूरी थीं। इस विवाद की वजह से परिवार में कई दिन तक तनाव रहा। इसी वजह से उसे घर में फिलहाल अपने रिश्ते की बात करने का उपयुक्त माहौल कम दिखाई देता है।

तीसरे दिन अनुराग दिल्ली से लौट आया और घर में सब कुछ सामान्य ढंग से चलता रहा। प्रिया अनुराग और अपनी मां के सामने मुझसे बहुत औपचारिकता का व्यवहार करती थी, जैसे हमारे बीच कोई खास रिश्ता न हो। मैं खुद ही अपनी मर्यादा में बंध गया था। वैसे मैं एक सम्मोहित प्रेमी की तरह उसके इशारों पर वह जहां चलने को कहती, चलता रहता। एक छुट्टी वाले दिन तो वह मुझे सवेरे से शाम तक मुंबई दर्शन के बहाने गेटवे ऑफ इंडिया, म्यूजियम, जहांगीर आर्ट गैलेरी, मालाबार हिल्स, मरीन ड्राइव, नेहरू भवन और गोरेगांव फिल्म सिटी की रमणीक जगहों पर सारे दिन घुमाती रही और मैं खुशी खुशी उसके साथ घूमता रहा। मैं उसे वर्ली किनारे अपने मीडिया इंस्टीट्यूट भी ले गया, जिसे वह गहरे चाव से देखती रही।

दिन भर के मुंबई-दर्शन के बाद उस शाम जब हम जुहू के समंदर किनारे पहुंचे तो प्रिया पानी में उतरने के लिए मेरा हाथ खींचने लगी, जबकि मेरा तो समंदर के नाम से ही जी घबराता है। न मुझे तैरना आता है और न चढ़ती उतरती लहरों के बीच पांव टिकाकर खड़े रह पाना। फिर भीगे हुए कपड़ों में वापस घर लौटना तो और भी अटपटा लगता। मैंने साफ मना कर दिया कि यह मेरे बस का नहीं है। आखिर उसके बहुत आग्रह करने पर अपनी पतलून की मोरी को उलटकर मैं किनारे-किनारे उसके साथ चहलकदमी के लिए जरूर राजी हो गया। हम देर तक टखनों को भिगोती लहरों की आवाजाही के बीच दूर तक चलते गये और दूर किनारे की रेत से बने एक ऊंचे टीले पर जाकर बैठ गये। हम देर तक चुपचाप बैठे लहरों का आना जाना देखते रहे। यों इस समंदर किनारे मैं पहले भी कई बार आया हूं, लेकिन प्रिया के साथ आज समंदर मुझे कुछ अलग ही रंग में दिखाई दिया। उसकी लहरों का शोर मेरे मन में लगातार बढ़ता जा रहा था और मैं चाहता था कि इस शोर के पार किसी नतीजे पर पहुंचूं। आखिर प्रिया से पूछ ही लिया, ‘‘तो फिर क्या फैसला किया तुमने, प्रिया।’’

‘‘फैसला मेरे हाथ में कहां है, निखिल! मैं तो खुद उस समय का इंतजार कर रही हूं, जहां कुछ कहने करने की सूरत बनती दीखे। भैया और मां को मनाना तो आसान है, लेकिन चाचा ताऊ और मां के भाई वगैरह का तो यही दबाव है कि रिश्ता उनकी जात बिरादरी के दायरे में ही हो। खासकर मां अभी इस बात को लेकर थोड़ी दुविधा में है।’’

‘‘फिर हमारी इस आपसदारी और रिश्ते का क्या होगा ?’’

 ‘‘हम कोशिश कर रहे हैं, यों अधीर होने से कैसे काम चलेगा। तुम पुरुष हो, तुम्हारे लिए चटपट फैसला कर लेना आसान हो शायद, लेकिन हम लड़कियों को बहुत आगा पीछा देखना होता है।’’

‘‘ठीक है। तीन दिन बाद मुझे वापस लौट जाना है। अगर इतने दिनों में कोई फैसला नहीं हो पाया तो देख लेना, अपहरण करके ले जाऊंगा।’’ मैंने हंसी में बात को समेटने की कोशिश की।

 ‘‘घुटनों तक पानी में उतरने की तो हिम्मत नहीं दिखाते और मेरा अपहरण करोगे। चलिये, यह कोशिश भी कर देखिये। कहीं तो आपको साहस दिखाने का मौका मिले।’’ इस व्यंगात्मक टिप्पणी के साथ वह हंसते हुए उठ खड़ी हुई, लेकिन उसकी बात में छिपी चुनौती से मैं एकबारगी सतर्क जरूर हो गया। मैं अकेला ही उस स्थान से उठकर लहरों की ओर बढ़ गया था और उसे उकसाते हुए बोल उठा, ‘‘अच्छा, तो रानी साहिबा को हमारे साहस में ही संदेह है। चलिये, बढ़िये दरिया की ओर। देखें कौन कितनी दूर साथ देता है।’’

‘‘फिलहाल तो मुझे अंधेरी ईस्ट जाना है। इस समंदर में उतरने का साहस फिर कभी देख लेंगे। आइये, बाहर टैक्सीवाला इंतजार कर रहा होगा।’’ प्रिया ने वहीं खड़े खड़े उत्तर दिया और विपरीत दिशा की ओर चल दी। मैं भी उसकी ओर बढ़कर साथ हो लिया। आज दिनभर की घुमाई से वह काफी खुश नजर आ रही थी। चलते हुए हम दो तीन मिनट में अपनी टैक्सी के करीब पहुंच गये थे। मैंने टैक्सी का गेट खोलकर उसे अन्दर बैठने की मनुहार करते हुए कहा, ‘‘आइये, फिलहाल तो आपका साथ देना ही बेहतर है। अगले अभियान पर फिर कभी।’’

‘‘मेरी खुशनसीबी।’’ मुस्कुराते हुए वह टैक्सी में सवार हो गई। मेरे अन्दर बैठकर गेट बंद करते ही टैक्सी वापस चल पड़ी थी।   

मुंबई दर्शन के तीन दिन बाद मेरी वापस रवानगी थी। यह उससे एक दिन पहले की बात है। अमूमन मैं और अनुराग सवेरे घर से साथ ही निकल जाया करते थे। वह वर्ली में मुझे अपने इंस्टीट्यूट के आगे छोड़ देता। लेकिन आज अनुराग को थोड़ा जल्दी निकलना था और मुझे थोड़ी देर के लिए कुछ जरूरी कागजात लेने जाना था, इसलिए दसेक बजे तक आराम से निकलने के लिए मैं तैयार हो रहा था। प्रिया को भी नौ बजे तक कॉलेज के लिए निकलना था। वह अपने समय से निकल गई। 

आधे घंटे बाद मैं घर के पास वाले स्टैंड के शेड के नीचे खड़ा बस का इंतजार कर ही रहा था कि इतने में एक छोटा लड़का जाने कहां से निकलकर मेरे पास आया और एक बंद लिफाफा यह कहते हुए मेरे हाथ में पकड़ा गया कि अभी प्रिया मैडम आपके लिए देकर गई हैं। मैं लिफाफा हाथ में लिये उलट पलट कर देखने लगा। कुछ पूछने के लिए नज़र वापस घुमाई, लेकिन लड़का उससे पहले ही जा चुका था। एकाध मिनट तो मैं लिफाफे की ओर देखता रहा, जिस पर अंग्रेजी में सिर्फ तीन शब्द लिखे हुए थे - ‘जस्ट फॉर यू’। मैं लिफाफा खोलने वाला ही था, इतने में स्टेशन की ओर जानेवाली बस आती दिख गई। मैंने लिफाफा कमीज की जेब में रख लिया और बस में सवार हो गया। बस सवारियों से भरी हुई थी। अंधेरी स्टेशन पास ही था, इसलिए यही सोचकर लिफाफा जेब में पड़ा रहने दिया कि ऑफिस पहुंचकर आराम से पढ़ लूंगा, यदि प्रिया ने घर में बात होते रहने के बावजूद यह पत्र भिजवाया है, तो कोई जरूरी बात ही होगी।

इंस्टीट्यट पहुंचकर मैं सीधा वेटिंग रूम में सोफे पर बैठ गया और जेब से लिफाफा निकाल लिया। खोलने पर भीतर एक तह किया हुआ पत्र दिखाई दिया, कोई पौन पेज के करीब लिखा हुआ था और पूरे मजमून के आखिर में लिखा था, ‘आपका एक शुभचिन्तक’। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह पत्र प्रिया की बजाय किसी शुभचिन्तक ने भिजवाया था। सोचने लगा, मेरा ऐसा शुभचिन्तक यहां कौन आ गया और यह क्या चाहता है।    

मैंने आस प‘‘प्रिय बंधु, आपको मेरा यह पत्र थोड़ा अटपटा और अप्रत्याषित तो लगेगा, सहज रूप से विश्‍वास कर पाना भी आसान नहीं होगा। यह भी सोचेंगे कि मैं कौन होता हूं आपको इस तरह लिखनेवाला। आपकी ये सब शंकाएं सही होंगी, पर मेरा मानना है कि ये सब जानना आपके लिए ज्यादा जरूरी नहीं है, आप तो वह जान लें, जिसे जानना आपके लिए बेहद जरूरी है और वह आपको मेरे अलावा कोई नहीं बताएगा।   आप अभी जिस बालिका के प्रेम पाश में बंधे हैं, उसके अतीत और अन्दरूनी इरादों से लगता है आप परिचित नहीं हैं, और होंगे भी कैसे, वह स्वयं तो आपको बताएगी नहीं और न ही उसके घरवाले। बालिका देखने में सुन्दर है, होशियार है, मुंबई की कल्चर में पूरी तरह रसी बसी, किसी भी युवक को आकर्षित कर लेने वाले सारे गुण और लक्षण हैं उसके पास। बस एक ही अतिरिक्त खूबी है, जो इन सारे गुणों पर भारी पड़ती है और वह है उसके चित्त की चंचलता। वह किसी एक की होकर नहीं रह सकती। आप शायद तीसरे या चौथे क्रम पर आए हैं और मेरा मानना है कि आप भी अन्तिम नहीं होंगे। पहला भुक्तभोगी मैं स्वयं हूं और मेरे बाकायदा उसके प्रेमजाल में बने रहते हुए ही जब उसे दूसरे को सौंप देने की तैयारियां होने लगीं तो ये बाला टुकुर टुकुर देखती रही। मैंने ऐतराज किया तो मुझ पर ही उल्टे सीधे आरोप लगाने लगी। आप भी याद करें, आपको इस बाला ने पहली बार किस तरह लुभाया होगा और फिर क्या क्या लुभावने सपने दिखाए होंगे। आप तो भले घर के दिखते हैं, आपने तो तुरन्त शादी के लिए मन भी बना लिया होगा, लेकिन उसका मन बनना इतना आसान नहीं है। इन दिनों कई बार आपको इसके साथ देखा है, कल जुहू पर आप दोनों को साथ देखा, तो जान गया कि इसने आपको भी पूरी तरह फांस लिया है। एक इन्‍सानी रिश्‍ते के नाते मैंने बहुत कड़ा मन बनाकर आपको यह हकीकत बयान की है। मैं उसका पहला प्रेमी रहा हूं, उसका इतना बुरा भी नहीं चाहता, लेकिन आपकी सज्जनता को देखकर थोड़ी चिन्ता जरूर हुई। आपके दोस्त अपनी बहन की हकीकत को बहुत कम जानते हैं, वे आपको मुंबई में बनाए रखने के लिए शायद आपकी हर संभव मदद करना चाहेंगे, अब यह आप पर है कि आप मुंबई में इस बला की गिरफ्त में रहना पसंद करेंगे या इससे जल्दी से जल्दी छूट जाना। यकीन मानिये मेरा इसमें कोई स्वार्थ नहीं है, लेकिन आपको आगाह करके बचा लूं तो समझूंगा एक पुण्य का काम हो गया। आगे जैसा आप उचित समझें। आपका एक शुभचिन्तक’’

पत्र पढ़कर एकबारगी तो मेरा सिर चकरा गया। वेटिंग रूम की दीवारों पर सजी सारी तस्वीरें मुझे घूमती सी नज़र आईं। कौन हो सकता है ऐसा पत्र लिखनेवाला। जो भी है, प्रिया और उसके घरवालों को और खुद मुझे अच्छी तरह जानता है, परन्तु प्रिया ने तो कभी ऐसे किसी आदमी का जिक्र नहीं किया। मैं बात भी करना चाहूं तो किससे करूं। 

 पत्र पढ़ने के बाद घंटे भर तक मेरे भीतर सन्नाटा सा बजता रहा। ट्रेनिंग पूरी हो जाने के बाद सर्टिफिकेट और कुछ रिपोर्ट्स की प्रतियां लेनी थीं, जो मैंने याद करके ले लीं। दो घंटों में अपना सारा काम निपटाकर सवा दो बजे तक मैं संस्थान से बाहर आ गया था। अंधेरी के लिए वहीं से एक टैक्सी लेकर अपरान्ह तीन बजे तक मैं घर लौट आया। टैक्सी को वहीं रुकने के लिए कहकर घर के दरवाजे की घंटी बजा दी। दरवाजा प्रिया की मां ने ही खोला था। प्रिया के बारे में पूछने पर बताया कि वह अभी कॉलेज से आई नहीं है। अनुराग तो वैसे भी सात आठ से पहले कम ही आ पाता था। मैंने मां को बता दिया कि मुझे कुछ जरूरी काम से चर्चगेट लौटना होगा। रात को देरी हो सकती है और कल दोपहर बाद सैंट्रल से गाड़ी पकड़नी है, इसलिए मुझे आज ही उनसे विदा लेकर जाना होगा। रात्रि विश्राम मैं वहीं संस्थान के गैस्ट हाउस में कर लूंगा। यह कहकर मैं अपना सामान पैक करने कमरे में चला आया।

कमरे में इधर उधर बिखरा हुआ अपना सामान बटोरकर अटैची में कपड़े जमा ही रहा था कि इतने में मुझे दरवाजे पर खड़ी प्रिया दिख गई। एक उड़ती नज़र से मैंने उसकी ओर देखा और अपने काम में लगा रहा। वह पास आकर बोली, ‘‘पूछ सकती हूं कि ये क्या हो रहा है।’’

 ‘‘क्यों, आपको नहीं दिख रहा। मैं सदा के लिए तो यहां आया नहीं था, अब वापस जाने का समय आ गया है, तो जाना ही पड़ेगा न।’’ मैंने रूखा सा उत्तर दे दिया और सामान समेटता रहा।

 वह एक झटके से आगे बढ़ी और मैं कुछ समझूं उससे पहले ही उसने आधी जमी अटैची बिस्तर पर उलट दी। मैं नाराज होता हुआ बोला, ‘‘ये क्या तरीका हुआ ?’’

 ‘‘जब किसी बात का सीधा उत्तर नहीं मिलता तो मुझे यही तरीका ठीक लगता है।’’ वह शरारत से हंसने लगी।

 ‘‘मैं अभी बहस करने के मूड में बिल्कुल नहीं हूं और आपसे तो मुझे कोई बात ही नहीं करनी।’’

 ‘‘क्यों जनाब, जान सकती हूं बांदी से ऐसा क्या गुनाह हो गया। हुजूर की तबियत तो ठीक है न, या बाहर किसी से झगड़ा करके आए हैं।’’ उसने फिर बात को हंसी के दायरे में ही रखते हुए पूछ लिया।

 ‘‘गुनाह तो मुझ से हो गया प्रिया कि मैंने किसी को बिना जाने समझे इतना बड़ा रिश्ता जोड़ने का सोच लिया। बताओ, क्या प्रायश्चित है इसका ?’’

 ‘‘खुलासा बात करो निखिल बाबू। मुझे पहेलियां सुलझाने की आदत नहीं है। अपनी इस छोटी सी ज़िन्दगी में पहले ही कुछ धोखे खाये बैठी हूं और बड़ी मुश्किल से उनसे बाहर आई हूं। अब सहज ही किसी पर विश्वास करना मेरे बूते की बात रही भी नहीं। आप मेरे बचपन के साथी हैं और जाने क्यों आप पर मुझे शुरू से ही धीरज रहा है, यदि मुझसे कोई गलती हुई है तो आपका हक बनता है कि आप उलाहना दें, लेकिन इस तरह टेढ़ी बातें न करें।’’ उसने संजीदगी से अपनी बात कही।

 मैंने बिना कुछ बोले जेब से वह कागज निकालकर प्रिया के हाथ में सौंप दिया और दुबारा अटैची सीधी कर सामान जमाने बैठ गया। तीन चार मिनट बाद वापस नज़र घुमाई तो वह कागज को नीचा किये और आंखों में आंसू लिये खड़ी थी।

 ‘‘क्यों भई, सिक्के का दूसरा पहलू सामने आया तो उसका निपटारा आंसुओं को थमा दिया, यह तो कोई बात नहीं हुई।’’ मैंने उसी वीतरागी भाव से अपनी बात कह दी।

‘‘ये आंसू तो मेरी बदनसीबी के हैं, निखिल। मुझे आज तक कोई माई का लाल ऐसा दीखा नहीं, जो सिक्के के दोनों पहलू सही सही एक ही नज़र में सामने रख दे। उन दूसरे लोगों की तरह आपने भी एक पहलू को देखकर पूरे सच की तसल्ली कर ली। अगर यही आपकी समझ है तो आप जाएं भले ही। मैं तसल्ली कर लूंगी कि मैंने आपको समझने में भूल कर दी।’’

‘‘वह बात छोड़ो, लोगों की साथ रहते उम्र बीत जाती है और एक दूसरे को समझना फिर भी बाकी रह जाता है। आप अपने मुंह से बता दो कि सच क्या है।’’ मैंने बात को संवारने की कोशिश की। यह भी लगा कि प्रिया के कहने में कुछ सार की बात जरूर है और वाकई सच का कोई और पहलू भी है, जिससे मैं पूरी तरह वाकिफ नहीं हूं।

‘लगता है, आपके पास समय कम है। आपने तो वापस जाने के लिए टैक्सी भी रोक रखी है। मैं भी आपका ज्यादा समय नहीं लूंगी, आप तो कम में इतना ही जान लें कि लिखनेवाला अगर इतना ही सत्यवादी है तो यों छुपकर क्यों वार करता है, मैं तो अकेली लड़की हूं और आप एक बाहरी आदमी, फिर किस बात का डर है उसे। आपको यह पत्र वह हाथों हाथ तो नहीं दे गया होगा। अगर कुछ माद्दा और दम है तो सामने आकर बात करे न, ताकि खुद के कारनामे भी सामने आएं।’’ इतनी बात कहकर वह एकबारगी रुक गई। मुझे लगा कि उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई है। हाथ वाला कागज मुझे सौंपते हुए वह कड़ुवाहट के साथ आगे बोली, ‘‘कमीना, अध्यापन के पवित्र काम पर कालिख पोतता है और दूसरों को नसीहत देता फिरता है। साहित्य और कला के नाम पर भोली भाली लड़कियों को अपने चंगुल में फांसता है और चाहता है कि उसके कारनामों की मैं अनदेखी कर दूं। अबकी बार कभी सामने पड़ गया तो भरे बाज़ार में लत्ते उतरवाकर छोडूंगी, बदजात ने मेरे डर से कॉलेज ही बदल लिया, लेकिन आप तो जाएं निखिल बाबू, आप से किस बात की नाराजगी, आपके संस्कार अच्छे हैं, मुझे खुद इस बात का अफसोस है कि कभी कभी मेरा अतिविश्वास और इच्छाएं खुद मुझे ही कुसूरवार ठहरा देती हैं।’’ बोलते बोलते रोष से उसका गला भर आया था और वह चुप हो गई। अपने दुपट्टे से आंखें पौंछती वह एकाएक पीछे घूमी और मैं कुछ कहूं, उससे पहले ही कमरे से बाहर निकल गई। एकाध मिनट मैं अचकचाया सा अपनी जगह खड़ा रहा, फिर कमरे से बाहर आया और घर के बाहर खड़ी टैक्सी का किराया चुकाकर वापस अन्दर आ गया।

सीधा कमरे की ओर जाने की बजाय मैं डायनिंग टेबल के पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। प्रिया की मां लिविंग रूम के कोने में रखे फ्रिज में कोई सामान ठीक कर रही थी। उनकी पीठ मेरी ओर थी। मैंने सहज रहते हुए उनसे कहा, ‘‘मांजी, क्या थोड़ी चाय मिल जाएगी ?’’

‘‘हां हां, अभी बनाकर लाती हूं बेटा।’’ उन्होंने मुड़ते हुए मुस्कुराकर मेरी बात का उत्तर दिया और रसोई की ओर बढ़ गई। आधे मिनट बाद उल्टे पांव लौटती हुई वे बोलीं, ‘‘चाय तो प्रिया ने पहले ही चढ़ा रक्खी है।’’ वह मेरे पास ही खाली कुर्सी पर बैठ गई। मुझे लगा कि उन्होंने प्रिया के साथ हुए मेरा संवाद जरूर सुन लिया होगा, इसीलिए शायद वे नाराज हैं। मैं कुछ संकोच सा अनुभव करने लगा था। मुझे चिन्ता और संकोच में बैठा देखकर वे धीरे से इतना ही बोली, ‘‘निखिल, तू मेरे लिए अनुराग जैसा ही बेटा है, प्रिया बहुत इमोशनल और सीधी लड़की है, उसकी किसी बात का बुरा मत मानना, हो सके तो उसका मन रखना। बस मुझे यही बात कहनी है।’’ वह इतना बोलकर चुप हो गई। मैं मां से कुछ बात शुरू करता, उससे पहले ही प्रिया चाय के तीन कप ट्रे में लेकर बाहर आ गई और बिना कुछ बोले ट्रे टेबल पर रख दी। उसके चेहरे पर उदासी थी। मुझसे बिना नज़र मिलाए, उसने एक कप उठाया और वापस अपने कमरे में चली गई।

चाय पीकर मैं उसी ऊहापोह मनःस्थिति में वापस कमरे में लौट आया। मैंने पत्र के बारे में प्रिया की प्रतिक्रिया पर गौर किया तो मुझे उसकी बातों में सच्चाई साफ नजर आने लगी। यह जरूर कोई लंपट व्यक्ति है, जो प्रिया को परेशान करता रहा है। मुझे प्रिया से और जानकारी लेकर उसका पता करना चाहिए और अनुराग को साथ लेकर उसे सबक सिखाना चाहिए, भले ही उसके लिए दो-चार दिन और रुक जाना पड़े तो कोई बात नहीं। मैं पलंग पर बैठा यह सोच ही रहा था, तभी बाहर मांजी की आवाज सुनाई दी। वे प्रिया से घंटे भर बाहर जाकर पास वाले बाजार से कुछ सामान और सब्जी लेकर आने का कह रही थी। प्रिया उनके साथ जाने की जिद कर रही थीं, लेकिन वे उसे घर पर ही रहने की हिदायत देकर मुख्य दरवाजे से बाहर निकल गईं। घड़ी में सवा पांच बजे थे। मैं भी कमरे से निकलकर ड्राइंग रूम में आकर बैठ गया और टी.वी. ऑन कर लिया था। दो तीन मिनट बाद जब प्रिया मेरे पास आकर खड़ी हो गई, तो मुझे खुद ग्लानि सी महसूस होने लगी कि मैं भी कैसे कैसे बहकावों में आ जाता हूं। उस प्रसंग को लेकर अब मेरे मन में कोई शंका बाकी नहीं रह गई थी।

प्रिया को अपने पास खड़ा देखकर मैंने टी.वी. की आवाज बंद कर दी और उसे अपने पास बैठने का आग्रह किया। वह सोफे के दूसरे सिरे पर बैठ गई। उसे सहज बनाने के लिए जब मैंने मां के बाजार से लौट आने के बाद समंदर किनारे या पास के किसी रेस्तरां चलने का सुझाव दिया तो वह गंभीर हो गई। वह बोली, ‘‘निखिल, मैं अपनी वजह से आपको किसी दुविधा में नहीं डालना चाहती। मुझे खुशी है कि आप मुझसे इतना लगाव रखते हैं। इस बार आपसे मिलकर मेरी जीवन में दिलचस्पी बढ़ी है, लेकिन अब फिर चीजें धुंधली नजर आने लगी हैं। यकीन मानिये, मैं आपको कोई सफाई नहीं देना चाहती। आप खुद अपने विवेक से फैसला करें। अगर कोई शंका हो तो पहले उसे दूर कर लें, खुद अपने तरीके से जांच करें और सही नतीजे पर पहुंचें।’’ अपनी बात पूरी कर वह चुप हो गई। 

 मैंने उसे आश्वस्त करते हुए फिर कहा, ‘‘मैं तो यही निवेदन करने के लिए बैठा हूं कि इस अवांतर प्रसंग को यहां घर तक ले आने की उतावली के लिए तुम मुझे माफ कर दो। मुझे तो खुद पर गुस्सा आ रहा है कि ऐसी हल्की बात मैं घर तक लाया ही क्यों। अब तुमसे पहली अर्ज यह है कि तुम इस बात को यहीं खत्म कर दो। मेरी दूसरी अर्ज ये है कि तुम दो दिन पहले मुझे समंदर किनारे ले गई थी, आज मेरी इच्छा है कि हम फिर वहीं चलें या किसी अच्छे रेस्तरां में, और उस दिन के अधूरे संवाद को एक मुकम्मिल फैसले में बदलकर वापस लौटें।’’

मेरी बात सुनकर प्रिया के चेहरे पर एक सहज मुस्कान उभर आई। उसके भीतर का तनाव भी कम हो गया था। मेरी आंखों में देखते हुए उसने इतना ही कहा, ‘‘इसके लिए हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं है। फैसला भी किसी और को नहीं लेना है। बस, अपने भीतर की खरपतवार को थोड़ा साफ करना है। पिछले दो दिनों से मैं यही सोचती रही हूं कि तुम्हारे लौटने से पहले हम खुद किसी नतीजे पर पहुंच जाएं, तो बेहतर है।’’

‘‘तो बताओ न, मेरी तरफ से और क्या तसल्ली चाहिए तुम्हें। तुम कहो तो कोई एफेडेबिट तैयार करवा लूं, कोई शर्तनामा तैयार करना चाहो तो मैं उसके लिए कोरे कागज पर पहले ही अपने साइन करके तुम्हें सौंप दूं।’’

‘‘ओ हो, अभी तो बहुत उदार हो रहे हो, लेकिन शर्तनामा सामने आने पर यह मत कहना कि इसकी तो तुमने कल्पना ही नहीं की थी।’’

‘‘फिर तो प्रिया, तुम एक कोरा कागज ले ही आओ, ये शुभकार्य मैं अभी सम्पन्न किये देता हूं, ताकि आगे का रास्ता साफ हो।’’ बातचीत जिस तरह आगे बढ़ रही थी, उससे मैं बहुत उत्साहित महसूस करने लगा था।  ‘‘सवाल किसी शर्तनामे का नहीं है, निखिल।’’ प्रिया का स्वर एकाएक संजीदा हो गया था। अपने को थोड़ा और संयत करते हुए वह कहने लगी, ‘‘कुछ बातें हैं, जो मैं आपको बताना जरूरी समझती हूं, ताकि कोई गलतफहमी न रहे। पहले यह बताएं कि क्या आपको इस बात की जानकारी है कि आपके और भैया के कॉलेज ज्वाइन करने के दिनों में हमारे घर में क्या-कुछ घटित हो गया था ?’’ उसने बिना कोई भूमिका बांधे एक सीधा सवाल किया।  

‘‘नहीं, मुझे तो किसी ने कोई जानकारी दी ही नहीं। शुरू में तो मैं खुद पढ़ाई में इतना डूबा रहा कि किसी के बारे में खबर लेने की फुरसत ही नहीं रही। आपके पिताजी के निधन का समाचार जरूर मुझे अपने दोस्तों के जरिए मिल गया था और उस वक्त मैं आना भी चाहता था, लेकिन किन्ही कारणों से देरी हो गई। मैंने अनुराग को पत्र लिखकर अपना दुःख भी प्रकट किया और आठ नौ महीने बाद जब मिलने के लिए जोधपुर पहुंचा तो पता लगा कि आप लोग मुंबई शिफ्ट हो गये हो। बाद में कभी कभार अनुराग का खत आ जाता, लेकिन वह घर परिवार के कोई समाचार तो लिखता ही नहीं था। लेकिन तुम बताओ, उसमें ऐसी क्या खास बात रही, जो मेरी जानकारी में होनी चाहिए थी।’’

 ‘क्या तुम्हें बाद में भैया ने या किसी और ने कभी कुछ नहीं बताया।’’

 ‘‘और तो कोई क्या बताता। अनुराग को मैंने ही पत्र लिखकर हालचाल पूछे थे और उसकी ओर से पत्र न आने के बारे में शिकायत भी की थी, जिसके जवाब में उसने लिखा कि घर में कुछ परेशानियों की वजह से वह मुझे खत नहीं लिख पाया, लेकिन किन्ही खास परेशानियों का जिक्र उसने नहीं किया। मैंने भी इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। यही सोचा कि घर परिवार में छोटी मोटी परेशानियां तो होती रहती हैं, अगर कुछ बताने लायक होगा, तो वह लिख देगा। यों खुद मुझे इस बात का अहसास था कि बाबूजी के न रहने पर घर में कितनी परेशानियां पैदा हो गई होंगी। परिवार में वे अकेले कमाने वाले व्यक्ति थे। अकेली उनकी पेंशन से तो क्या गुजारा चलता। अच्छी बात यही रही कि अनुराग को जल्दी ही जॉब मिल गई और आप सब मुंबई आ गए। तुम्हारे बारे में जानने की इच्छा बराबर बनी रही, लेकिन यही संकोच रहा कि कहीं अनुराग को बुरा न लगे। मैं तो यही समझे बैठा था कि तुम्हारी कहीं शादी हो गई होगी और अब तक तो तुम अपनी ससुराल में रस-बस गई होगी। इतने बरसों बाद जब तुम्हें अपने सामने देखा तो कितना आश्चर्य हुआ। सच पूछो तो मुझे इतनी खुशी हुई कि क्या बताऊं! और जब यह जाना कि तुम मीडिया में अपना कैरियर बनाने में रुचि रखती हो तो मेरे लिए वैसे ही अतिरिक्त आकर्षण का कारण बन गई।’’ यह बात कहते हुए मेरी अपनी खुशी अनायास ही जुबान पर आ गई थी।

 शायद उसे भी मेरी बात अच्छी लगी, लेकिन अपने को संयत रखते हए उसने इतना ही कहा, ‘‘पिताजी के न रहने से जो परेशानियां बढ़ीं, वे तो खैर अपनी जगह थीं ही, लेकिन कुछ अनचाही परेशानियां और भी पैदा हो गईं, जो किसी के बस की बात नहीं थीं। मेरी तो एक तरह से पारिवारिक रिश्तों में दिलचस्पी ही खत्म हो गई थी, लेकिन भैया ने वाकई बहुत कष्ट उठाए हैं और आज भी वही हैं, जो मुझे हर आघात से बचाकर रखते हैं।’’

‘‘मैं समझा नहीं, तुम किस आघात की बात कर रही हो? क्या हुआ था, तुम्हारे साथ?’’

‘‘हुआ तो नहीं। बस, होने जा ही रहा था, लेकिन बच गये! मतलब, मैं किसी और की होने से बच गई, लेकिन वह लड़का तो जिन्दगी से ही महरूम रह गया। इसका वाकई मुझे अफसोस है।’’ उसने एक गोलमोल सी पहेली बयान करके मेरी उत्सुकता को और बढ़ा दिया था।  

‘‘क्या बात कर रही हो तुम, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया।’’ मैं आश्चर्य से उसकी ओर देखे जा रहा था।

‘‘यही हकीकत बताने की तो कोशिश कर रही हूं आपको। पापा के जाने के बाद मां को हरवक्त मेरी शादी की चिन्ता लगी रहती थी। खुद अपने बारे में तो क्या राय देती, और वैसे भी अपने परिवारों में लड़की की राय को कौन महत्व देता है। उन्हें तो सिर्फ मां बाप के कहने के मुताबिक बरताव करना होता है। मुझे हरवक्त यह डर बना रहता कि कहीं गलत जगह पर न फंस जाऊं। उन्हीं दिनों मेरे मामाजी जोधपुर के एक फौजी परिवार के संपर्क में आए और उन्होंने लड़के के पिता से मेरे रिश्ते की बात कर ली। मां और भैया को भी वह रिश्ता पसंद आ गया। मैं उस वक्त जोधपुर में बी. ए. सैकिंड ईयर की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। मेरी इस रिश्ते में कोई खास दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन लड़की की बेरुखी की कौन परवाह करता है। लड़का आर्मी में कमीशंड अफसर था। सगाई के वक्त जब पहली बार उससे मिलना हुआ तो घर में सभी को पसंद आ गया। सबकी रजामंदी से सगाई भी हो गई। सगाई के बाद भैया तो मां को साथ लेकर वापस मुंबई लौट गये और मुझे वापस हॉस्टल में छोड़ गये। तीन महीने बाद अचानक खबर आई कि मेरा वह मंगेतर कश्मीर में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हो गया। यह बात जानकर घर में सभी को बेहद अफसोस हुआ। लड़के से यों तो कोई भावनात्मक रिश्ता तब तक बना ही नहीं था, लेकिन उसके इस तरह जाने का दुःख होना तो स्वाभाविक ही था। इस हादसे के बाद मां की चिन्ताएं और बढ़ गईं। बी.ए. की परीक्षा समाप्त होते ही भैया मुझे अपने साथ मुंबई ले गये। मां को भी उन्होंने यह समझाने का प्रयास किया कि व्यर्थ की चिन्ताएं न करे। लेकिन उसकी चिन्ता अपनी जगह कायम थी। इस बीच मैंने जिन्दगी से जो कुछ जाना सीखा, उस दृष्टि से मेरी चिन्ताएं और सोच कुछ दूसरी तरह का हो गया था।’’

‘‘अगर ठीक समझो तो अपनी चिन्ताओं में मुझे भी शामिल कर सकती हो। शायद हम साथ मिलकर कोई बेहतर निर्णय कर सकें।’’ मैंने उसके सोच की दिशा का अनुमान करते हुए सुझाव दिया।

‘‘चाहती तो मैं यही हूं कि अपनी कुछ बातें आपके सामने खुलासा रख दूं, जिससे आपको भी निर्णय लेने में आसानी रहे। असल में अपना पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद मुझे यह जरूरी लगने लगा है कि मैं अपनी रुचि का कोई जॉब करूं, यह मीडिया कोर्स करने के पीछे भी यही मकसद है। इसे लेकर मैं कोई कैरियर चुनूं या न चुनूं, काम करने का यह विकल्प मैं अपने हाथ में रखना जरूरी समझती हूं। जीवन को लेकर कोई बड़ी महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं मेरी, लेकिन अपनी रुचि का काम करते हुए आत्मसम्मान के साथ जीना मेरी अपनी जरूरत है। घर और परिवार को मैं ऊंचा मान देती हूं और बड़ों के प्रति आदर भी, लेकिन अपेक्षा उनसे यह भी करती हूं कि वे अपना बड़प्पन खुद बनाकर रखें, छोटों को स्नेह दें और उन्हें विकसित होने के लिए बेहतर अवसर। मैं जीवन में सच्ची साझेदारी की इज्जत करती हूं, जिसे आप आपसदारी कहते हैं। पति पत्नी के रिश्तों में समर्पण और स्वीकृति की बजाय मैं सहमति को ज्यादा अहमियत देती हूं, मेरी नजर में प्रेम कोई निजी मामला नहीं है, उसका असर घर परिवार और समूचे माहौल पर रहता है। किसी एक से लगाव रखते हुए मैं समूचे जीवन जगत से लगाव की कल्पना करती हूं!’’ 

    “निखिल, ये बातें मुझसे रिश्ता बनाने या निभाने की शर्तें नहीं हैं, और न कोई मेरी जिद है, इन बातों को मैंने किन्हीं किताबों से पढ़कर ग्रहण नहीं किया है। ये मेरे अपने जीवन अनुभव हैं। जीवन के बारे में मेरी इस सोच को लेकर कई बार जब मां और भैया को चिन्तित देखती हूं, तो खुद परेशान हो उठती हूं। उन्हें कह चुकी हूं कि वे मेरी चिन्ता छोड़ दें, लेकिन उनके लिए भी शायद यह आसान नहीं है। मां भैया को कई बार अपने रिश्ते के लिए जोर देकर कह चुकी हैं, बड़े मामा भैया के लिए एक अच्छा रिश्ता लेकर आए भी थे, लेकिन अब तो भैया ने भी कहना शुरू कर दिया है कि जिस दिन प्रिया रिश्ते के लिए हां कर देगी, वे अपने बारे में निर्णय कर लेंगे। अब ये बात वाकई मेरे लिए चिन्ताजनक हो गई है। अपनी मां और भैया की इच्छा से मैं परिचित हूं। उन्होंने शायद हम दोनों को आपसी समझ विकसित करने के लिए ही यह अवसर दिया है, लेकिन मेरा आप पर कोई दबाव नहीं है। आप भैया के अच्छे दोस्त हैं और आगे भी बने रहें, मुझसे अब भी वैसा लगाव रखते हैं या नहीं, यह आपको तय करना है। जब ठीक समझें, बता दीजियेगा।’’ इस आखिरी बात के साथ प्रिया का स्वर बहुत धीमा हो गया था और अपने खुले हाथों की ओर देखते हुए वह खुद में ही जैसे खो गई थी।

प्रिया की बातों पर विचार करते हुए मैं वाकई चकित था। उसकी पारदर्शी सोच का मान रखते हुए मैंने सिर्फ इतना ही पूछा, ‘‘हमारे बीच इतनी गहरी आपसदारी के बाद भी क्या कोई निर्णय बाकी रह गया है, प्रिया। यह जीवन खुद हमने अपने हाथों से बनाया है, और तुमने तो इसे तराशा भी है। हमारे अपनों ने बेशक इसमें अपनी भागीदारी निभाई हो, पर इसे आगे ले जाने और मुकम्मिल बनाने का मनोबल तो हमीं को अर्जित करना है। बस, इसी के लिए जीवन में हमें एक दूसरे का साथ चाहिए। मेरे अंतस में इस बात को लेकर न कोई दुविधा पहले थी और न अब है। अगर कुछ अधूरा है, तो उसे हम साथ मिलकर पूरा करेंगे। बताओ, अपनी इस आपसदारी को लेकर और किस तरह की तसल्ली   यही मेरी स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी और इससे ज्यादा कहने के लिए मेरे पास कुछ था भी नहीं। मेरी आंखों में तैरते इसी अपनत्व के प्रति आश्वस्त होते ही प्रिया ने मुझे अपनी उत्सुक बाहों में कसकर बांध लिया।


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