आंगन में लगा वो तुलसी का पेड़

आंगन में लगा वो तुलसी का पेड़

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भैया एक टिकट बिलासपुर का देना, मैनें खिड़की से रूपये पकड़ाते हुए कहा। ये लीजिए बहन जी!! टिकट वाले नें टिकट पकड़ाते हुए कहा.

भैया ट्रेन कब तक आएगी, मैनें दोबारा टिकट वाले से पूछा; बहन जी आज ट्रेन थोड़ा लेट है। वैसे टाईम हो गया है, लेकिन समझ लीजिए कि अभी १५ से ३० मिनट और लेट हो सकती है, टिकट वाले नें जवाब दिया;

फिर मैं अपना सामान उठाकर वेटिंग रूम की तरफ बढ़ गयी। और ट्रेन का इंतजार करने लगी। रात के ग्यारह बज चुके थे। यानी ट्रेन कल सुबह ही मुझे बिलासपुर के स्टेशन पर पहुँचाएगी।

ट्रेन लेट थी तो सोचा कुछ लाकर खा पी लेती हूँ। कुछ ही देर में ट्रेन भी आ गई। मैं तुरंत जाकर अपने लिए सोने के लिए एक सीट ले ली। फिर सामान रखकर गृह शोभा खोलकर बैठ गयी। पर पता ही नही कब मैं अपनी बीती यादों में गुम हो गई।

बिलासपुर से थोड़ी ही दूर एक छोटे से गाँव में मेरा घर है। उस समय पापा उस गाँव के जमींदार हुआ करते थे। सभी उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे। पापा का ही गाँव में बोलबाला था। दादी तो दिन भर मुँह में पान चबाया करती थी। अगर एक भी दिन उनके मुँह में पान की बीड़ा न जाए, तो उनके गले से खाने का स्वाद न उतर पाए। और माँ को तो मैने बचपन से सिर पर पल्ला रखे हुए ही देखा। और हाँ उनकी एक अलग ही पहचान बन गई थी घर में...

हमारे घर में एक बहुत बड़ा सा आंगन था। दादी वहीं हमेशा खटिया डालकर लेटी रहती थी। और धूप तो जैसे उनके लिए ही बनी थी। हमेशा वो लगभग पूरे ठंड में धूप का आनंद उठाती। और उसी आंगन में ही बिल्कुल बीचों बीच तुलसी का पौधा लगा हुआ था। जैसे टी.वी. में क्योंकि सास भी कभी बहू थी वाला सीरियल में जैसे तुलसी यानी स्मृति इरानी तुलसी के पौधे को जल चढ़ाते हुए दिखती थी। ठीक वैसे ही मेरी माँ भी रोज़ उसी तुलसी के आगे घी के दिये जलाती और उस पर जल चढ़ाती। तभी कुछ वो गृहण करती।

ये मेरी माँ की आदत बचपन से थी। माँ मुझे बताती थी कि कैसे वो अपने बचपन में ही तुलसी माता के आगे घी के दिये जलाकर जल चढ़ाती थी। ताकी एक अच्छा और प्यार करने वाला जीवन साथी मिले। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई थी, लेकिन माँ की आस्था उससे जुड़ी हुई थी। बचपन में माँ मुझे खूब समझाती थी कि मैं भी उनकी तरह तुलसी माता के आगे घी के दिये जलाया करूँ और जल चढ़ाया करूँ। लेकिन मैं हमेशा बहाने बनाकर भाग जाया करती थी।

समय बीतता रहा, और मैं बड़ी होने लगी। जैसे जैसे मैं बड़ी होती जा रही थी, वैसे वैसे हमारे घर के आँगन में लगा वो तुलसी का पौधा भी माँ के प्रेम और विश्वास के साथ फलता-फूलता हुआ पेड़ का रूप लेता जा रहा था।

देखते ही देखते मेरे ही आँखों के सामने वो पौधा भी तुलसी के बड़े पेड़ में तब्दील हो गया। माँँ बहुत ही खुश थी। फिर मैं खुद ही जाकर एक दिन माँ से पूछ बैठी, माँ क्या आप मुझे भी तुलसी माता की पूजा अर्चना करना सिखाएँगी।

ये सुनते ही माँ की आँखें ही नम हो गई थी। और मुझे उन्होने चूमते हुए कहा, हाँ मेरी बच्ची.. मैं तुम्हें जरूर सिखाऊँगी और तुम्हें तुम्हारी शादी के वक्त विदाई में उसी तुलसी माता के अंग का एक छोटा सा हिस्सा तुम्हें भेट स्वरूप दूँगी। तुम भी उसे मेरी तरह ही अपने घर के आँगन के बीचों बीच लगाना। और उसको खूब प्रेम देना, उसकी खूब सेवा करना। फिर वो भी इसी तरह बड़ी होकर तुलसी के बड़े पेड़ में तब्दील हो जाएगी। और मुझे यकीन है तुम भी बिल्कुल मेरी तरह ही उस पौधे की भी सेवा जरूर करोगी, और अपनी संतान को भी सिखाकर इस विश्वास को आगे बढ़ाओगी। कि तभी शोर से मेरी आँख खुल गई तो देखा ट्रेन बिलासपुर स्टेशन पर ही खड़ी थी। और आज मैं अपने गाँव जा रही हूँ। उसी तुलसी माता के पेड़ के पास जा रही हूँ, अपनी माँ के पास जा रही हूँ। उनको महसूस करने जा रही हूँ। उनकी गोद में सिर रखकर चैन की नींद सोने जा रही हूँ।


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