आईना
आईना
"नीरव मुल्तान पुरी जी "... वाह!!! जी जनाब ......आप तो बहुत अच्छा लिखते हो। "जनाब" आपकी शायरी में , वह दम है जिसे सुनकर हमें मिर्ज़ा गालिब की याद ताजा हो जाती है । कमाल के शेर लाते हो आप.... सारी महफ़िल वाह वाह कह उठती है जनाब।" अपनी वाहवाही से आज नीरव बहुत खुश था। शीशे के सामने ताई उतारते हुए नीरव बड़ी शान से आज अपनी महफिल की शान होने पर इतरा रहा था ।हर तरफ उसी की चर्चा थी। बड़ी-बड़ी महफिलों में उसके शेर सब पर भारी पड़ जाते थे।
लोग उसकी तारीफ करते नहीं थकते थे कि "आप कहां से एहसास लाते हैं,शब्द में जान डाल देते हैं "लेकिन .....आईने के सामने सच नंगा हो जाता है कोई कितना भी दिखावा कर लें लेकिन आईना सच बोल देता है। उसके सामने रुपए से खरीदे गए शेरों का कोई मूल्य नहीं होता पैसे देकर आप शब्द तो खरीद सकते हो लेकिन किसी के एहसास नहीं खरीद सकते,सच नहीं खरीद सकते। आईने के सामने मुखौटे नहीं चलते ,झूठी वाह वाह नहीं चलती। नीरव शीशे के आगे झूठ नहीं बोल सका कि यह सारे शेर उसने अपने घर से निकाले गये नौकर के कमरे का सामान फेंकते हुए नीचे गिरी उसकी डायरी से निकाले थे। जिन पर वह आज इतना नाज़ करके फूला नहीं समा रहा था।
वह शब्दों के साथ- साथ जिंदगी के एहसासों का गुनहगार था आईना ............ उसे उसका झूठा चेहरा दिखा रहा था।