ज़िहाद
ज़िहाद
घिनौने मक़सदों को
अंजाम देने के लिए
आँखों पर बाँध मज़हब की पट्टी
ताउम्र लड़ा है
देख माँ, जिसे तू फूल कहती थी
आज रास्ते की धूल सा
ज़मीन पर पड़ा है
'जिहाद' से खुलेगा 'जन्नत' का रास्ता
मेरे आकाओं ने बताया था
इस्लाम की हिफाज़त की ख़ातिर
होगा बहाना, काफिरों का ख़ून
बार बार दोहराया था
कैसे भूल गया,
जब बनाया था ख़ुदा ने इंसान
फरिश्तों से सज़दा कराया था
किया जाता है जिहाद
अपने अंदर के शैतान से
अम्मी तूने बचपन में सिखाया था
जन्नत तो क्या, दोज़ख में भी
नहीं मिली, मेरी रूह को पनाह
आज खुश हैं सब मेरी मौत से
नहीं निकली किसी दिल से
ग़म की एक आह ...