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ये इतने लोग...

ये इतने लोग...

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ये इतने लोग

कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह ?

ढेर सी चमक-चहक

चेहरे पे लटकाए हुए

हंसी को बेचकर बेमोल

वक़्त के हाथों

शाम तक उन ही थक़ानो में

लौटने के लिए

ये इतने लोग

कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह ?


जब तलक जिस्म ये

मिट्टी न हो फिर से, तब तक

मुझे तो कोई भी मंज़िल

नज़र नहीं आती


ये दिन और रात की साज़िश है,

वरना मेरी

कभी भी शब नहीं ढलती,

सहर नहीं आती

तभी तो रोज़

यही सोचता रहता हूँ मैं

ये इतने लोग

कहाँ जाते हैं सुबह-सुबह !


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