यादों का विसर्जन
यादों का विसर्जन
कुछ कड़वी कसैली यादें
चुभती हैं बहुत।
हर बार जब कभी वह पनपती
एक टीस सी मन में उठती
और फिर वह धीमे धीमे पूरे बदन में
रक्त के साथ फैलकर
असहनीय वेदना दे जाती हैं।
चाहती हूँ उन यादों को विसर्जित करना।
जैसे विसर्जित करते हैं हम
किसी अपने की मृत्यु की चिता की राख।
ये चुभती हुई यादें,
चलचित्र की भाँति उभरती हैं आँखों के सामने
और बार बार यह एहसास दिलाती हैं
उन गलतियों का जो हमने की नही
मगर जिसकी सजा भुगत रहे हम।
शायद यह हमारे किस्मत का दोष था
या फिर पूर्वजन्म का कर्मफल।
चाहती हूँ उन यादों को विसर्जित कर दूँ
कही दूर ले जाकर
किसी बड़ी नदी में या समुन्द्र में
जहाँ से वह लौट कर कभी न आ सके
धाराओं के साथ।
मगर यादें तो यादें होती,
रूह में समाई हुई
कहाँ हमसे अलग हैं जिन्हें विसर्जित किया जा सके
अब तो उन यादों के संग जीना है
और इंतजार करना है वक्त का
ताकि वक्त के साथ वह धुंधली हो जाये।
