व्यथित मन
व्यथित मन
व्यथित मन
चूल्हा फूंकने में पड़ा है ,
जलती हुई लकड़ी
धुएं के गुबार से
निकले आसुओं को
रोकने में असक्षम हैl
बटुए में पड़ा दो-चार मुट्ठी भात
भूख में चित्कारती,
धरा पर लोटती
क्या उस मासूम के
उदर की तृप्ति कर पायेगा ?
कोसती अपने शराबी पति को
जिसके दिए घावों को कभी
मरहम भी नसीब न हुआ,
तभी झूमता झमता
वही देवता प्रकट होता है ,
जिसे समाज परमेश्वर का दर्जा देती है ,
साथ आता है
किसी दूसरी अभागन का परमेश्वर
नोचने मेरी देह को ,
जिससे आगे कुछ दिन तक
जल सके मेरे घर का चूल्हा हैl