व्यथा किताबों की
व्यथा किताबों की
लाइब्रेरी में गई, किताबों पर धूल थी
एक किताब ऐसी गिरी
मानो उछल पड़ी हो
और कह रही हो कि कृपया मुझे पढलो
बहुत दिनों से मैं यही पड़ी हूं।
कोई नहीं आता मुझे लेने,
कोई नहीं देखता मेरी तरफ,
सब गूगल पर पढ़ने लगे हैं
मुझे पढ़ने से कुछ को चश्मे लगे थे
पर अब उस मोबाइल में बुराइयां नहीं दिखती।
इतना ही नहीं दर्द के मेरे इन्तेहाँ नहीं है
मुझे डाउनलोड कर लेते है मोबाइल में,
ये तो ऐसा लगता है जैसे कि बगल में बैठे इंसान की
ऐसे तस्वीर देखना जैसे अब वो शेष नहीं हो।
बस, बस ऐसा ही मुझे भी लगता है ,
इस लाइब्रेरी में तो कहीं बस्तों में,
कहीं अलमारियों पर पड़ी हूँ मैं
और मेरे जीते जी लोग मेरी तस्वीर लिए घूम रहे हैं,
तुम समझो न, तुम मुझे पढ़लो ना।
