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Pragya Hari

Abstract

4.5  

Pragya Hari

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वो सतऱंगी पल..

वो सतऱंगी पल..

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जब गुल्लक फोड़ कर, 

कंचे ख़रीद लाए थे,

कितनी ख़ुशी थी, 

जब पड़ोसी की छत से

टूटे पतंग ला कर, 

हमने उड़ाए थे, 


जब छिले हुए घुटनों को, 

माँ की डर से, 

पतलून में छिपाए थे, 

पर लकड़ी के उस 

गुड्डे के टूट जाने पर, 

कितने आँसू बहाए थे 


जब पापा की डर से, 

माँ के आँचल में, 

छिप जाया करते थे, 

पापा ने भी तो कंधों पर, 

कितने मेले घुमाए थे.


अब न पतंग मिलते हैं, 

न घुटने छिलते हैं, 

दुनिया को पाने की धुन में, 

माँ की आँचल से भी 

दूर हुए हैं... 


खो गए हैं कहीं , 

मेरे बचपन के, 

वो सतरंगी पल...!


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