वो ख़त ख़ुदा के नाम के
वो ख़त ख़ुदा के नाम के
ख़त जो तेरे नाम लिखे थे
कई तन्हा शाम लिखे थे
बेबस होकर बेसुक़ूनी में
रात में बेआराम होकर लिखे थे
कुछ सम्हाल के रखे हैं
कुछ तो पुर्ज़े पुर्ज़े बिख़र गए!
तुझे दोस्त मानकर लिखे
बेख़ौफ और बेनाम लिखे थे
कुछ अनसुनी फ़रियाद थी
ग़मज़दा की दबी आवाज़ थी
तुझे ही सबकुछ मानकर
ज़माने भर से हार कर
मेरे रब मैंने वो ख़त लिखे थे
बेरोकटोक बेधड़क
अपने दिल को खोलकर
अनकहा भी बोलकर
वो ख़त कभी लिखे थे
कहीं भेजती भी तो कहाँ
तेरा वजूद तो मेरे मन में था
तूने पढ़े या न पढ़े!
मगर मेरा दिल तो हल्का हुआ था
मेरी घायल रूह की मरम्मतें हुईं थीं,
और मुझे जीने का मक़सद मिला
क्यूँकि
वो ख़त ख़ुदा के नाम के
थे बड़े ही काम के!
बिन भेजे ही कमाल कर गए
और
मेरे अंदर का क़लमकार
धीरे धीरे सँवरकर निखरता गया!!