वीरांगना की ख़ुदकुशी
वीरांगना की ख़ुदकुशी
एक वीरांगना की कविता,
आज मै कुछ इस कदर सुनाऊँगी।
कि दर्द के कण कण आपके
आंखों से उभर आयेंगे।
किसे खबर थी वो
अपना अतीत नही भविष्य की
हकीकत इस कविता में
दफन कर जाएगी।
माँ से कहकर निकली थी कि
दवाई लेकर आ जाउंगी।
किसे पता था, आज वो
अपने जख्म में डूब जाएगी।
वो करती थी स्नेह सभी से
और खुद तन्हा रह जायेगी।
और डूब के आज की अनबन में
वो स्वयं को भूल जाएगी।
ना रहा किसी का प्रेम हिर्दय में,
कुछ ऐसा वो कर जाएगी।
लोग रह गए दंग की वो
मासूम वक़्त से हार मान जाएगी।
निकल पड़ी वो अंधकार प्रलय में,
खुद को रोका ना मन को रोका।
समझ नहीं थी कि
जीत रही थी या हार रही थी।
उस वक्त वो खुद को टाल रही थी।
ह्रदय में चुभा स्वाभिमान की फिकर,
फिर हो गयी वो पीड़ा में मगन।
ना होश में थी ना मदहोश में थी वो।
यूँ मानो जैसे क्रोध में थी वो…
खुद को वो अब रोक ना पायी,
बस इक ऊंची छलांग लगाई।
माँ ने सोचा कहाँ उलझ गई
खबर किसी को नहीं थी कि
वो दुनिया से गुज़र गई।
दिल सबका तब थम सा आया
मछुआरों ने देह निकाला।
क्या वो अनबन का
होना आज जरूरी था।
क्या उसका गम में
डूब जाना आज जरूरी था।
क्या ये कहर ढाना
आज जरूरी था, या
स्वाभिमान से परे अपने
ह्र्दय प्रिय का सम्मान
रखना जरूरी था।
क्या रिश्तों की विडम्बना में
आज उछाल आना जरूरी था।
या यूँ कहें कि ईश्वर को
आज ये दिन दिखाना जरूरी था।
स्वयं के कौशल से ही वो
वीरांगना कहलायी थी।
किसे खबर थी, सबका ह्र्दय जीतने वाली वो
"देवानन्द" एक दिन आत्महत्या कर
कायरता का अध्याय पढ़ा जाएगी।
अपने अतीत को भूल,
वर्तमान की करनी,
भविष्य की हकीकत,
इस कविता में दफ़न कर जायेगी और
कभी किसी की संदूक तले
एक पुस्तक में सहमी पड़ जाएगी।