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Charu Upadhyay

Abstract

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Charu Upadhyay

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तुम्हें क्या पता

तुम्हें क्या पता

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मैं खुद के साथ रहती हूँ हमेशा

कहते हो फ़िर कभी मिलता हूँ 

तो सुनों 

अकेली हूँ तुम्हें क्या पता


खुद से खुद को टटोलती हूँ हमेंशा 

कहते हो मैं तुम्हें ढूँढता हूँ 

अच्छा 

बैठी-बैठी खो जाती हूँ तुम्हें क्या पता


हँसते-हँसते यूंही रो देती हूँ हमेशा 

कहते हो मैं समझता हूँ 

ऐसा क्या 

तेरे ही दर्द में जीती हूँ तुम्हें क्या पता


तन्हा राहों में फिरती हूँ हमेशा 

कहते हो मैं अपने हुज़रे को चलता हूँ 

तो रूको 

एक दरस को मैं तरसती हूँ तुम्हें क्या पता 

अजी तुम्हें क्या पता।


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