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कुमार अविनाश (मुसाफिर इस दुनिया का )

Abstract

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कुमार अविनाश (मुसाफिर इस दुनिया का )

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ठहर जाओ

ठहर जाओ

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ठहर जाओ, घड़ी भर और

तुम को देख लें आँखें!

अभी कुछ देर मेरे कान--

में स्वर गूँजे तुम्हारा

बहे प्रतिरोम से मेरे

सरस उल्लास का निर्झर

बुझा दिल का दीया शायद

किरण सा खिल उठे जल कर,

ठहर जाओ, घड़ी भर और

तुम को देख लें आँखें!


तुम्हारे रूप का सित आवरण

कितना मुझे शीतल

तुम्हारे कंठ की मधु-बंसरी

जलधारा सी चंचल

तुम्हारे चितवनों की छांह

मेरी आत्मा उज्जवल,

उलझती फड़फड़ती प्राण

पंछी की तरुण पांखें।


लुटाता फूल सौरभ सा

तुम्हें मधु-वात ले आया,

गगन की दूधिया गंगा

लिए ज्यों शशि उतर आया

ढहे मन के महल में भर

गई किस स्वप्न की माया

ठहर जाओ घड़ी-भर और

तुम को देख लें आँखें!


मुझे लगता तुम्हारे सामने

मैं सत्य बन जाता,

न मेरी पूर्णता को देवता

कोई पहुंच पाता,

मुझे चिर प्यास वह अमरत्व

जिसे जगमगा जाता,

ठहर जाओ, घड़ी भर और

तुम को देख लें आँखें!


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