तितली
तितली
इसे अंत कहूँ या आरम्भ मैं
भोर के उदय में फैलता झाग
फूल पर फूल बैठा है रंगीन
रह गया देख कर उसे दंग मैं
एक तितली उड़ती हुई , बेपरवाह
मन की मत बदल गयी , देख वाह
कैद कर लूँ , हाथों में उसे लेकिन
बन ना जाऊं मैं कहीं लापरवाह
सोच बदल दे, अहसास बदल दे
रंग से जिसके एक पहचान बदल दे
खूब ईश्क़ सजा, प्रकति से मेरा ये
देखकर की एक तितली जहां बदल दे
खुशबू बड़ी सुंगन्धित है उसकी
उड़ने की कला भी कतई जहर
फड़फड़ाने लगा दिल पँखो से
घायल कर गयी, चोट उसकी
एक तितली को देखकर मैं
प्रकति की परिभाषा जान गया
जब मरता है, जीव इंसान के लिए
इंसान खुद, खुद की जान से गया।
