तिरंगे की बुलंदी
तिरंगे की बुलंदी
मुद्दे अभी और भी बहुत है
यार लिखने को,
सिर्फ प्यार पे लिखकर
ग़मज़दा मत कर,
रूह-ऐ-बिस्मिल को
था इंतिखाब उनके पास भी
प्यार के लिए जीने का
पर जान दे गए अपनी ताकि
जिन्दा रहे तिरंगा हमारा !
रेलगाड़ी की पटरियों पर लाशें बिछी थी,
सरहद के उस पार
तो इस पार भी
कुछ आँखें धर्म के
नाम पर जो मिची थी।
सिर्फ जोश के दम पर
बन्दूक से लड़ाई जीती थी,
सोच भी न हम सकते कि
आज़ाद की माँ पे क्या बीती थी।
ए-दोस्त,इतने एहसान-ऐ-फरामोश
मत हो जाना कि तुम उनकी
कुर्बानी ही भूल जाओ।
न जाने कितनो ने जान गंवाई,
कितनो ने सीना ताने गोली खाई।
हाँ,था न ख्वाब उनका भी
कोई उनका भी हाथ थाम ले,
उनकी सुने
उनका ग़म जरा आधा बाँट ले,
वो भी दूसरों की तरह प्यार,
जो प्यार है ही नहीं
उसके के लिए जिये।
पर वो ख्वाब तिरंगे कि बुलंदी
के सामने फ़क़त भी न था।
जब नारो की नोक पे
रक़्स-ए-बिस्मिल हुआ।
तब एक बन्दुक ने खून का दरिया पीया,
तो मिट्ठी के पुतले को रत्ती भर भी फर्क न पड़ा
कि उसकी लाठी ने कितने
बेचारो को कितना दर्द दिया।
आज कोई नौजवान होगा
शहीद ए आज़म जैसा ?
जो हँसते हँसते दूसरों
के लिए मर जायेगा।
बताओ दोस्त होगा कोई
जो फाँसी के तख्ते पर
वतन के कल के लिए
हँसते हँसते झूल जायेगा
होगा वो भाई-चारा
रेहमान और राम के बीच ?
अफ़सोस दोबारा गुलामी की
जंजीरो ने सब को कैद जो कर लिया।
है बस इतनी आरज़ू ए दोस्त इतने
एहसान-ए-फरामोश न बन जाना कि
रूह-ऐ-बिस्मिल सपने में आकर बिन बोले ही
हर वक़्त एक सवाल करता रह जाये