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pramila kumari

Inspirational

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pramila kumari

Inspirational

स्व - मिलाप

स्व - मिलाप

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तुझे ढूंढने जो निकली, मेरी कविता, 

सिरहाने रखती थी , तुम वहाँ तो न निकली।

सोचा मेज़ पर बिखरी-सी तुम मिलोगी, 

वहाँ भी तुम्हें न पाया, तुम्हें ढूंढने जो निकली।

मैं ढूंढने लगी फिर, घर का कोना- कोना, 

खिड़कियों पर झांका, दरवाजे पर भी देखा।

उम्मीद हर जगह थी, पर मिलती तुम नहीं थी।

थक हार के मेरी जब, आंख लग गयी तब।

सपनों में खोये-खोये, परी एक मिल गयी तब।

लगी पूछने वो मुझसे, खुद से कब मिली हो।

धरती की हरी चादर को कब था निहारा,

फूलों की खुशबू को सांसों में कब भरा था।

पिछली बार शाखाओं पर कब चढ़ी थी, 

सुरज और गगन को पहले कब था, देखा।

नदियों और झरनों के कलरव, कब सुने थे, 

चांदनी में नहाये बर्ष कितने बीते।

सुनकर हमदर्द स्वाल इतने, 

पलक के तीरे पर ,नीर बह निकले।

इतने में नींद टूटी और मैंने देखा, 

दूर एक दरख़्त पर मिली मेरी कविता।

धुंल से भरी थी, छुने पर भी चुभी थी, 

कहने वो लगी कि, अब तुम मिली हो।

थी अलबिदा की बारी, चलो तुम ढुढ़ निकाली।

सोच लो कहां रखोगी, 

हृदय में थी रखती, मुस्कान में बसुगीं।

फिर मेरे संग मुस्कुरायीं मेरी कविता।


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