सुबह का मंज़र
सुबह का मंज़र
सुबह का ये मंज़र तो देखो
जैसे शर्म कि लाली ओढ़े आसमान,
कर रहा है मिलन कि बेला को बयान।
और बादलों के उस पार एक इन्सान,
कर रहा अपने अन्तर मन से मिलान।
है ये दोनों एक दूजे कि गहराइयों से अनजान,
पर दोनों ही पाने को है
एक नयी रोशनी एक नयी पहचान।