सतत् विकास
सतत् विकास
अब ना करो उन कुँओं को याद,
जो प्यास बुझा कर सुख गये,
ये डूबना तुम तक ही ठीक था,
तुम तो हमें ही लेकर डूब गये,
जो थे कटोरे खाली,
वो और खाली होते गये,
जो थे मसीहा सबके,
वो एक धब्बा और गाली होते गये,
उन कंकालों की चर-चर से
कितने शव लावारिस हैं,
इस व्यवस्था की जर्जर से
कितने मकां अब खाली हैं,
गूंजती नहीं वहाँ किलकारी है,
ये अपने लोगों की देनदारी है,
कहाँ गया वो राष्ट्रवाद वो देश प्रेम
क्या ये बस सेना की जिम्मेदारी हैं,
ये वस्त्र श्वेत धारण करके
क्यों इनकी लाज डूबते हो,
ये केवल वस्त्र नहीं, शालीनता के पहिये हैं
इन्हें क्यों कीचड़ से सनाते हो,
पारलौकिक जगत ही जाने
तुम ना जाने कैसे विकास चाहते हों,
