स्त्री के कदम
स्त्री के कदम
लिहाज़-ए-सूरत, कितनी शरम लेकर चलते हैं,
वो मेरे आगे, घूँघट ले कर चलते हैं।
जाके बोल दो मेरा ये संदेसा भोले,
उनके पायल बड़े बे-शरम हो कर चलते हैं।
कोई देखे न, इतनी साज़िश करके चलते हैं,
वो, एक परदे से गुज़ारिश करके चलते हैं।
तोड़ेंगे वही आ कर मेरी बेड़ियाँ,
जो चलते हैं तो सर पर कफ़न लेकर चलते हैं।
घर से बाहर निकलने पर, सोचते होंगे,
भोले, यहाँ तो जानवर खुले आम चलते हैं।
फूट जाये वो ऑंखें जो घूरते हैं उनको,
वो अक्सर हुस्न का फंदा बांध कर चलते हैं।