सरिता
सरिता
कहां से तुम आई
और कहां को जाओगी ।
भेद न कोई पाया
क्या तुमने खोया क्या पाया ।
बस बहती रहती हो
सब सहती रहती हो ।
कभी शांत धारा सी
कभी चंचल पारा सी ।
छोड़ अपने गर्भ गेह को
चली आप्लावित करने धरा गेह को ।
सबको तुम अमृत पिलाती
कण कण की प्यास बुझाती ।
निज तट पर उर्वरा फैलाती
पर जीवन में खुशहाली लाती ।
तृण तृण की तुम हो जीवनी
करती स्पंदन बन संजीवनी ।
तुम सह्रदय सरस स्वाती हो
पर बदले में क्या पाती हो ।
गंदगी जमाने की
बेपरवाहगी अपनों की ।
क्या समझेगा कोई
तुम्हारे त्याग की भाषा ।
क्या कर पाएगा कोई
तुम्हारे सत्कर्मों की परिभाषा ।
हां कहते हैं सब तुमको सरिता
बहती कवियों के अंतः में बन कविता ।
हो तुम निस्वार्थ भाव की सजग मूर्ति
भरती पल -प्रतिपल नूतन स्फूर्ति ।।
