सफर
सफर
तपते, तड़पाते धूप के बाद प्रकृति का प्यार जब वर्षा की बूंदे बन धरती पर पड़ती है तो धरती हरी - भरी दिखाई देने लगती है।
ऐसे ही जीवन की तपती जेठ में, प्यार भी सावन की तरह आता है कुछ दिन तो उमंगों की फुहार में बीत जाया करता है फिर तपता जेठ आंखों में समा जाता है और जीवन मरुस्थल सा लगने लगता है जहां संभावना तो है मगर रेत का,हरियाली का नहीं।
ये प्यार भी ना, मेरे दिल को छूकर मेरे सर से गुजर जाता है हमेशा मेरी खराब गणित की तरह।
जहां एक से एक जोड़कर दो या ग्यारह बनते हैं।
वहीं मेरे गणित में एक से जुड़ने के बाद दूसरे से जुड़ने की संभावना जीरो हो जाती है।
अब यह हेर - फेर गणित का हो या जीवन का,कुछ अनोखा इतिहास जैसा तो बिलकुल भी नहीं।
यहां मेरे गणित में एक से जुड़ने के बाद दूसरे से जुड़ने का जुड़ाव आधा ही नहीं बल्कि पूरा खत्म हो जाता है।
मेरी इन भावना या संभावना को मंगल पर पानी ढूंढने जैसा लगता है,जैसे मिल भी गया तो क्या वहां मानव जीवन की संभावना होगी या नहीं इसे मैं सीधे-सीधे हां में नहीं कह सकती।
किसी से अत्यधिक जुड़ाव अपने अंदर से अपना जुड़ाव ख़त्म कर देने जैसा है।
इसे जीवन का अमंगल घटना भी कह सकते हैं।
बाक़ी ये सोचना आज़ भी मेरे लिए बाकी का विषय है कि मैं अपने वर्तमान स्थिति में हूं या कोई अनोखी घटना की भूतकाल में विचरण कर रही हूं।।
सफ़र जारी है .....ज़रा साथ मिल कर चला करिए,
अनायास ही क्या कयास लगाए आज़ भी थाम के दिल तेरी राहों में बैठे हैं।।