समुद्र का किनारा
समुद्र का किनारा
रोज मिलता है यह
समुद्र का किनारा मुझसे,
दहाड़ता है तूफान लिए
चल पड़ती हूँ रेत पर
देखती हूँ अपने ही पदचिन्हों
को खोते हुए
कभी कभी सोचती हूँँ
समुद्र में इतना खारापन
कहाँ से आया?
शायद कोई बैैठ
इसके किनारे जार जार
रोया होगा
या एक मीठी सी नदी
मिलना चाहती हो इसमें
उस विरह मे रोकर खारा
कर दिया हो शायद
कभी लगता है मैं
तट पर पड़ी ,
उन मछलियों के समान हूँ
जिसे लहरें किनारा कर गयी हैं
तुम भी अथाह
समुद्र के समान ही हो प्रिय
और लहर के समान
मैं हूँ
हर लहर में होता है समुद्र
पर हर लहर समुद्र
तो नहीं कहलाती।
