स्मृति कह लो या आत्मा
स्मृति कह लो या आत्मा
वह नहीं है,
तो फिर,
जब किसी
पदचाप को सुनके
किसी के गुजरने का
एहसास होता है,
उसे क्या कहेंगे ?
आत्मा !
जिसे भय से,
हम भूत मान लेते हैं
दरअसल यह भूत,
अतीत है !
पर, हम डरने लगे,
डराने लगे,
तर्पण अर्पण,
झाड़फूंक करवाने लगे,
यदि तर्पण
अर्पण हो ही जाता है,
तो आत्मा कहाँ जाती है ?
किसी दूसरे शरीर में
रूप पा लेती है,
फिर दिखाई क्यूँ देती है ?
और यदि नहीं पाया
दूसरा शरीर,
तब तो तर्पण अर्पण
अर्थहीन हो गया !
अगर आत्मा हमारे बीच ही
रहना चाहती है,
तो रहने देते हैं न।
क्यूँ स्मृतियों के गले लग
हम रोते भी हैं,
ढेरों कहानियाँ सुनाते हैं,
"काश, वह होता/होती"
जैसी बातें करते हैं,
और उसे दूर भी
करना चाहते हैं।
आत्मा अमर है,
तभी तो,
राम, कृष्ण, रावण, कर्ण
कुंती, सीता, द्रौपदी, गांधारी
ये सब हमारे बीच आज भी है।
ये हमारा व्यक्तिगत
साक्षात्कार है उनसे,
जो हम अपने नज़रिए से,
उनकी व्याख्या करते हैं।
इसी तरह पूर्वज हैं,
नहीं होते तो पितृ पक्ष का
कोई अर्थ नहीं होता,
नदी, समंदर में
खंडित दिखाई देते देवी देवता,
पुनः उपस्थित नहीं होते,
आशीषों से नहीं नहलाते।
वे हैं, अब इन सबको
स्मृति कह लो
या आत्मा।