समाज के ठेकेदार
समाज के ठेकेदार
ये मेरे वही स्तन है न?
जिसे तुम हर वक्त घूरते रहते थे,
खेतों में,खलिहानों में।
सड़कों पर, कारखानों में,
ऑफिसों में सफाई करते समय,
मेरे झुकने का करते थे इंतेज़ार,
ताकि तुम मेरे क्लीवेज को देखकर,
मिटा सको,
अपनी मानसिक विकार,
ताकि तुम मेरी ब्रा से बाहर आते,
मांस के इस गोल लोथड़े से,
मिटा सको,
अपनी वासनापूर्ण आँखों की प्यास!
आज मेरे वो स्तन जब,
भूख के कारण सूख चुके हैं!
तो उसमे दूध न बनने के साथ,
तुम्हारा देखना भी बंद हो चुका हैं,
आज मेरी हालियां जन्मी संतान,
दूध के बिना,
चीख व चिल्ला रही है!
रोटी के लिए मेरे जिस्म,
मेरे खून का आख़िरी कतरा तक,
दिन-ब-दिन सूख रहा है,
मेरे सूखे हुए निप्पल्स को मुंह मे
दबाए मेरा भूखा बच्चा,
अपने आंसुओं से मेरे स्तन को,
सींचने की कोशिश कर रहा है,
और साथ में असंवेदनशील, अन्यायी व्यवस्था से,
रोटी की गुजारिश कर रहा है!
गर तुम्हारे आंखों में संवेदना,
अभी बची है तो एक बार फिर देखो,
मेरे बच्चे को,
उसकी आँखों को,
उसके आँसुओं को,
उसके सूखे होठों में दबे,
मेरे सूखे निप्पल्स को!
उसके जन्नत जैसी माँ के,
दूध विहीन सूखे स्तनों को देखो!
और फिर अंत मे ग़रीबी की महामारी से,
बेजान हुए एक ममतामयी माँ के,
सूखे हुए प्राणहीन जिस्म को!
तुम देख सको तो,
एक बार फिर से देखो!!