स्कूल बैग का भार
स्कूल बैग का भार
माँ! बस्ते के बोझ तले मेरा बचपन रो पड़ा,
देखो, यह कितना भारी है, मेरा मन भी अब थक चला।
नन्हें कंधों पर लदी ये किताबों की पोटली,
खेल की गलियों को छोड़, मुझे बना रही जटिल बौद्धिक कठपुतली।
माँ! यह अन्याय अब असहनीय हो चला,
न्याय का दीपक जलाकर, तू मेरा पथ प्रशस्त करा।
शिक्षा का प्रकाश चाहिए, पर बोझ नहीं,
मुझे उन्मुक्त गगन में उड़ने दे, कृत्रिम सीमाएँ अब रोकें नहीं।
प्रतियोगिता की आँधी में हम दौड़े ही चले जा रहे,
किस मंज़िल की खोज में, खुद को ही खोते जा रहे।
तनाव की छाया में घिरकर, हँसी भी फीकी पड़ चली,
नन्हें सपनों की क्यारी में, उलझन की बेलें उग चली।
क्या यह दौड़ कभी थमेगी नहीं?
क्या मंज़िल का कोई किनारा नहीं?
या अंधकार की इस अथाह गहराई में,
हमारे स्वप्न ही कहीं
विलीन हो जाएँगे?
