शहर का बदलता मौसम
शहर का बदलता मौसम
🌆 शहर का बदलता मौसम
(एक भाव प्रधान अलंकृत काव्य )
✍️ श्री हरि
🗓️ 28.8.2025
शहर अब ऋतुओं से नहीं बदलता,
यहाँ मौसम बदलते हैं नज़रों के इशारों से,
जेबों के भार से,
और इच्छाओं की दिशा से।
यहाँ प्रेम अब गुलाब नहीं रहा,
एक स्वार्थ का व्यापार बन गया है।
सत्य का सूरज उदित नहीं होता,
केवल झूठ की मशालें जलती हैं,
और लोग उन लौओं में
अपने ही साये तलाशते हैं।
शादी अब संस्कार की वेदी नहीं,
बल्कि समझौते का अनुबंध है,
जहाँ दो दिल नहीं,
दो सुविधाएँ मिलती हैं।
छोटे कपड़े आधुनिकता का प्रतीक हैं,
और लज्जा अब बीते युग की दंतकथा।
चेहरे अब केवल चेहरे नहीं रहे,
वे मुखौटों का संग्रह हैं —
सुबह दफ़्तर का,
शाम पार्टी का,
रात अकेलेपन का।
सुविधा अनुसार
हर आदमी एक नया चेहरा पहन लेता है।
भोलापन अब मूर्खता कहलाता है,
मक्कारी का नाम रखा गया है स्मार्टनेस।
दूसरे की पीड़ा पर हँसना
“सेंस ऑफ ह्यूमर” कहलाता है,
और छल करना
“आर्ट ऑफ़ सर्वाइवल”।
हर आदमी अब केवल अपने भीतर सिमटा है,
अपना छोटा-सा ब्रह्माण्ड रच लिया है,
जहाँ कोई रिश्ते नहीं,
केवल नोटों की गिनती है।
लिव-इन और परायी चाहतें
अब स्टेटस सिंबल हैं,
और देर रात की पार्टियाँ
नई सुबहों का विकल्प।
माँ-बाप जिनके आशीर्वाद से घर बसते थे,
अब वृद्धाश्रम की दीवारों में गुम हैं,
और आलीशान बंगलों में
पालतू कुत्ते राज करते हैं।
मोबाइल ने जीवन को निगल लिया है,
और जीवन का मूल्य
नेटवर्क की स्पीड से मापा जाता है।
यहाँ आँसू अब कविता नहीं लिखते,
बल्कि इमोजी में बदल जाते हैं।
हृदय अब धड़कता नहीं,
केवल ट्रांज़ैक्शन करता है।
पैसा और पद ही सब कुछ हैं,
भावनाएँ अब बिना खरीदार की वस्तु हैं,
बाज़ार में पड़ी हुई,
धूल फाँकती हुई।
शहर का यह बदलता मौसम
कभी सर्द नहीं होता,
कभी गर्म नहीं होता —
यह हमेशा धधकता रहता है
लोभ, वासना और छल की आंच पर।
और मैं सोचता हूँ —
क्या कोई ऋतु फिर लौटेगी,
जहाँ प्रेम वर्षा-सा बरसे,
सत्य का सूरज फिर चमके,
और भोलापन फिर से
निर्मलता का अलंकार कहलाए?
