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Sulakshana Mishra

Abstract

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Sulakshana Mishra

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सच और झूठ

सच और झूठ

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क्यूँ देते हो सबूत

तुम खुद को बेगुनाह दिखाने को।

यकीन मानो 

बड़ी शिद्दत से गढ़े हैं सबने

ताज़ तुम्हारे इल्ज़ाम के

तुम्हारे सर पे सजाने को।

निभाते हैं रंजिशें भी सब

बड़ी कातिल अदाओं के साथ।

छुपाये रहे दिल में 

गुबार नफरतों के

और लबों पे सजे रहे

ताज़ मुस्कुराहटों के।

करते हैं दावे

कि ये सबसे करीबी हैं

पर हकीकत में ये

कुछ और नहीं

बस फरेबी हैं।

पहचानते भी कैसे तुम

इनकी असलियत को?

तमाम चेहरे हैं इनके

अपने एक चेहरे पे सजे।

जब भी दिखे

बस एक नया झूठ ही दिखे।

न हो मायूस तुम

इस फरेब जाल में।

क्या हुआ जो अगर

मजबूर है सच

अगर आज के इस हाल में।

तो रखो यक़ीन

कि अंत मे जीतता सच ही है

चाहे लाख फँसा ले झूठ इसे

अपने भँवर जाल में।



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