सांत्वना का महोत्सव
सांत्वना का महोत्सव
बड़े बड़े महोत्सवों की तैयारी में,
अक्सर हम बेबसी देखना भूल जाते हैं,
हो कर मगन शोर गुल और जश्न में
लाचारी देखना भूल जाते हैं ,
सुबह से लेकर रात तक लग कर तैयारी में,
ळथपथ पसीने की बूंदें छलकती हैं ,
कोई कमी ना रह जाये महोत्सव में,
इस कोशिश में भूख प्यास नहीं लगती हैं,
समाज का एक तबका ऐसा भी होता है,
जिस दिन मिल जाये दो वक्त की रोटी,
तो वही दिन महोत्सव का होता है,
ऊंची ऊंची बिल्डिंगों से सब बौने ही दिखते हैं,
पूरे घर में सोने के लिये केवल दो ही बिछौने होते हैं,
हो रही तैयारी रंगीन बल्बों की लड़ियॉं सजी हुई,
साथ डी जे की थाप पर कन्या बालायें थिरकती हुईं,
किसी को क्या पड़ी हैअपनी खुशी का त्याग करे,
जिसको जब मौका मिला अपना हाथ सब साफ करे,
ऑंखें बन्द कर रेत में मुंह छुपा लिया,
क्या इससे सच का दिखना बंद हुआ,
बड़े बड़े उत्सवों में छुपे बड़े बड़े जख्म हैं,
हाथों में लिये लगा रहे सांत्वना का मरहम हैं,
जिंदगी के महोत्सव में लगे हर पल मेले हैं,
भीड़ तो बहुत है फिर भी सब अकेले हैं,
जिसे आ गया हुनर अकेले जीवन जाने का,
वही बादशाह बाकी सब केवल झमेले हैं,
जीवन एक उत्सव मिला है आजमाने को,
खुशियों के दिन चार हैं ये समझाने को,
किसी को दे सहारा किसी का घर रौशन करने को,
मिल बॉंटने को मिला है ना कि अपनी जेबें भरने को,
किसी के दिल में उत्साह जगे कोई तो आशा का फूल खिले,
तब मिलती है संतुष्टि जब समभाव सब प्रसन्न् दिखे ..!!