रणबँका मेवाड़
रणबँका मेवाड़
जहाँ सूर्य की लाल किरण जैसी आँखें गरमाती हैं,
और जहाँ हल्दी-घाटी से केसर भी शरमाती हैं।
तलवारों का घाव जहाँ पर माँ की ममता सहती हैं,
जहाँ रगों में नमक-हलाली खून से ज्यादा बहती हैं।
और जहाँ यौवन ज्वाला में जल कंचन बन जाता हैं,
बरछी-भाले की खन-खन सुनकर बचपन तन जाता हैं।
रणभेरी और नाद-दुंदुभि जहाँ शगुन में बजते हैं,
दोनों हाथ में तलवारें ले सौ-सौ शीश उतरते हैं।
रक्त-पिपासु होकर जब गर्ज़न तलवारें करती हैं,
तब रणचंडी और भवानी खून से खप्पर भरती हैं।
जहाँ समर में मातृभूमि का बढ़कर क़र्ज़ चुकाते हैं,
घण्टों-घण्टों शीश हाथ ले धड़ भी रक्त बहाते हैं।
कण-कण से मेवाड़ धरा का शौर्य गरजता आया हैं,
पानी बरसे कमतर, ज्यादा लहू बरसता आया हैं।