रिश्तों की छाँव धूप
रिश्तों की छाँव धूप
जब पक्षियों के झुंड को चहचहाते हुए सुनती
सहसा मन विचरण करता अतीत की यादों में।
खूब करते नादानी, बचपन में हर मौसम भाया,
ममता का आँचल, पिता के संस्कारों की छाया।
स्कूल और मोहल्ले में, सहेलियों का झुँड होता,
मन की बात होती, वक्त भी धीरज न खोता।
रिश्तों की कतार में बढ़ने लगी भीड़ भारी,
यौवन आया तो अद्भुत प्रेम की चढ़ी खुमारी।
अमावस भी लगती थी पूनम की रात,
प्रियतम से होती थी जब दिल की बात।
आया वो दिन जब डोली में बैठी थी काया,
स्वप्न था टूटा , किस्मत ने जाल था फैलाया।
नया घर नए रिश्तों में निभ रही थी जिंदगी,
साजन से प्रेम हुआ और दिल से की बंदगी।
समर्पण की ख़ुशबू, अपनेपन की बौछार,
तीखी मीठी नोंक-झोंक बढ़ता गया परिवार।
हीरे मोती से बच्चे, संगीत सी उनकी किलकारी,
उज्जवल भविष्य बने खुशियाँ थी हमने वारी।
सुख-दुख, प्यार की मिठास, से हुई पोटली भारी,
रिश्तों के झुंड में थी बीत रही जिंदगी सारी।
भोर होती ऊर्जावान और साँझ बोझिल होती,
संवेदनाओं के सागर में,समझौतों को रही ढोती।
शिकायतों का बोझ,खुशियाँ से खाली झोली,
वक्त बड़ा सौदाई रहा, दुख की परतें एक न खोली।
मौन वक्त, शून्य चेतना और पतझड़ का मौसम,
रिश्तों के गणित में आज असफल हो गए हम।
जोड़ा रखा हमेशा सुख को, दुख के काटे पल,
गुणा किया सद्भावों का फिर भी न मिला हल।