पर्वत की वेदना
पर्वत की वेदना
हूँ पर्वत मैं अडिग अचल ,
शीश उठा मैं खड़ा शान से..
दुश्मन डरे ,डरे मेघ भी ,
छूती गगन शिखर मेरी..
मेरी गोद में खेले नदियाँ,
खेले पशु ,खग और वृक्ष भी..
आह! मानव क्यों घोपा खंजर,
दिया था मैंने ,तुझे जीवन..
क्या गलती थी ,जो तूने मुझे,
काट दिया सुख अपना देख..
देख ये पशु और विहग भी ,
नित दिन मेरे साथ ही मरते ..
पेड़ों की जैसे लाशें लटकी हों,
प्रगति...प्रगति... तू करता नित दिन..
काट दिए तूने मेरे हिय,
देख अब कहाँ रहा मैं..
हो सके तो समझ दर्द को,
समाप्त हो जाएगा मेरे साथ... तेरा अस्तित्व भी,
अब भी जाग..... संभल इंसान तू....।