प्रतीक्षा
प्रतीक्षा


गिरती है फिर संभलती है
उठ कर खड़ी हो जाती है
समाज से लड़ने के लिए,
घर की झूठन मांजती है
और झूठन ही पाती है अपनी थाली में,
सारे घर की धुल झाड़ती है
मगर नही झाड़ पाती अपने आईने को,
शाम होते ही सज कर बैठ जाती है
प्रतीक्षा में, और ढूंढती है
उस बंधन में प्रेम, प्रशंसा और सम्मान,
मगर कुछ नही पाती, दर्द के सिवा
वो दर्द जो शरीर से उतर कर
मन की तहों तक पहुँच जाता है,
वो कभी नही पाती इंसान का दर्जा
और हमेशा औरत ही रह जाती है,
जो जरा सा भिन्न है
उन बाजारू औरतों से जो
बाजार में लुटती है और
वो चारदीवारी के अंदर।