प्रण
प्रण
बैठा उदास नदिया तीरे
चिंता अवसाद मन को घेरे
कैसे आज मैं घर को जाऊं
कैसे पिता से नज़र मिलाऊँ
साइकिल लेकर भरी धूप में
जाते हैं कितनी दूर
बन जाऊं मैं कुछ जीवन में
सपने देखें मजबूर
माँ सुबह सवेरे उठ कर
चूल्हा है सुलगाती
स्कूल पढ़ेगा बड़ा आदमी
बन जायेगा पूत
कैसे देखूँ बाबूजी का
आंसू फिर पी जाना
माँ को लाल आँखों में
फिर काजल से अश्रु छुपाना
डूब जाऊं इस दरिया में जो
फिर न रहेगी आस
नहीं करेगा आशा कोई
कि हो जाऊंगा पास
तभी दिखा दल फूले कमलों
की आभा से भरपूर
कीचड़ में भी मुस्काते जो
बोले न कर ये भूल
राह बहुत हैं जीवन में
काँटों के संग ही फूल
इम्तिहान में डट कर लड़ना
चाहे कंकड़ मिलें या शूल
जीत तुम्हारी होगी जो तुम
डटे रहो रणवीर
चल दिया मैं फिर कर प्रण
आऊँगा लेकर इक दिन विजय के फूल|