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Rohini Jha

Tragedy

3  

Rohini Jha

Tragedy

प्रकृति

प्रकृति

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रूष्ट प्रकृति व्याकुल हो कर

त्राहि-त्राहि क्रंदन करती है

अत्याचार से कुपित हो धरा

मानव को सूचित करती है।


बार-बार करूँ मनुहार

सुन ले मनुष्य मेरी पुकार

चेत- न अब हो देर कहीं

जो हुई- रहेगा न शेष कोई।


आलय में फिर प्रलय होगा

साक्ष जिसका समय होगा

माँ सम् जैसे पोसा अब तक

दंड यूँ ही उद्घोषित होगा।


कटे-जले वृक्षों से आहत

और धुएं में दम भरती

व्यग्र प्रकृति व्यथित हो

मनुज से निवेदन करती।


जलती श्वास की पीड़ा से

क्षुब्ध हुई घुट कर जीती है

हरी-भरी यह वसुधा सारी

त्राहि-त्राहि रुदन करती है।


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