प्रकृति
प्रकृति
रूष्ट प्रकृति व्याकुल हो कर
त्राहि-त्राहि क्रंदन करती है
अत्याचार से कुपित हो धरा
मानव को सूचित करती है।
बार-बार करूँ मनुहार
सुन ले मनुष्य मेरी पुकार
चेत- न अब हो देर कहीं
जो हुई- रहेगा न शेष कोई।
आलय में फिर प्रलय होगा
साक्ष जिसका समय होगा
माँ सम् जैसे पोसा अब तक
दंड यूँ ही उद्घोषित होगा।
कटे-जले वृक्षों से आहत
और धुएं में दम भरती
व्यग्र प्रकृति व्यथित हो
मनुज से निवेदन करती।
जलती श्वास की पीड़ा से
क्षुब्ध हुई घुट कर जीती है
हरी-भरी यह वसुधा सारी
त्राहि-त्राहि रुदन करती है।
