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Ajay Singla

Abstract

4.8  

Ajay Singla

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प्रकृति की सीख

प्रकृति की सीख

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इक दिन मेरे मन में आया

क्या हूँ ये मैं कर रहा

काम दिन से रात तक

तिजोरियां मैं भर रहा।


निकलना चाह्ता था मैं अब

महफिलों के दौर से

शहर की इस घुटन से

और बेतहाशा शोर से।


मैंने ड्राइवर से कहा कि 

गाडी निकालो अभी

 गाडी में सामान रखो

खाने पीने का सभी।


गाड़ी को लेकर चला मैं

पता नहीं मंजिल कहाँ

मिलें जहाँ कुछ शांत लम्हे

जाना चाहता था वहां।


रास्ते में एक नदी थी

कल कल कर वो बहती थी

बैठा था मैं उसे तट पर

बिन कहे कुछ कहती थी।


आगे मैं जब फिर चला तो

घने जंगल आ गए

ऊँचे ऊँचे पेड़ थे और

हिरन भागे जा रहे।


प्रकृति ने कहा की मुझसे

बातें करो कुछ कहो

सफर ये अनजान से

अक्सर करते रहो।


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