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Richa Pathak Pant

Abstract

5.0  

Richa Pathak Pant

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प्रकृति का दण्ड

प्रकृति का दण्ड

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सानी नहीं ब्रह्माण्ड में कोई प्रकृति के असीम औदार्य का।

दण्ड भुगतती है धरा स्वार्थी मनुज के विवेकशून्य कार्य का।


मुक्त हस्त दिये प्रकृति ने नदी, वन, पहाड़, घाटियाँ और झरने।

जो थे सभी प्राणियों को सम्मिलित भाव से सदा उपयोग करने।


परन्तु निज स्वार्थ का मारा मनुष्य, प्रकृति का रहस्य जान न सका।

रहा स्वार्थ वशीभूत ही सदा, अनुशासन ब्रह्माण्ड का मान न सका।


हो स्वजन सह स्वगृह बन्दी अब बिलखता है भाग्य पर फूट- फूट कर।

स्वच्छन्द आचरण स्मरण कर अपना रह जाता कलेजा कूट-कूट कर।


सम्भलो मनुष्यों, समझो चेतावनी प्रकृति की, तजो भाग्य ‘को रोना’।

अन्यथा वास्तव में मनुष्य प्रजाति को नेस्तनाबूद कर न दे ‘कोरोना'।


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