परिंदा
परिंदा
मैं मन का परिंदा उड़ चला
मैं मन का परिंदा उड़ चला
मैं फिक्र का परिंदा खुद की
सोच में पड़ा ना मन की खाविहीस
पूरा होती ना कोई मिलती वजह
मैं मन का परिंदा उड़ चला
अब कोइ समझ ना रही
क्यों कि घर से दूर रहते हैं
पहले किसी की डाट सुनकर
उठा करते थे आज उसी आवाज
को सुनने के लिए तरसते हैं पहले
बुरा लगता था उस आवाज से आज उस
आवाज को सुनने के लिए तरसते हैं
ये मन उनके यादों की झलक बनकर
आंखों से बह चला ये परिंदा उड़ चला
मैं मन का परिंदा उड़ चला
मैं मन का परिंदा उड़ चला।