STORYMIRROR

Pawan Kumar

Romance

4  

Pawan Kumar

Romance

परिंदा

परिंदा

1 min
358

मैं मन का परिंदा उड़ चला

मैं मन का परिंदा उड़ चला


मैं फिक्र का परिंदा खुद की

सोच में पड़ा ना मन की खाविहीस

पूरा होती ना कोई मिलती वजह

मैं मन का परिंदा उड़ चला


अब कोइ समझ ना रही

क्यों कि घर से दूर रहते हैं

पहले किसी की डाट सुनकर


उठा करते थे आज उसी आवाज

को सुनने के लिए तरसते हैं पहले

बुरा लगता था उस आवाज से आज उस


आवाज को सुनने के लिए तरसते हैं

ये मन उनके यादों की झलक बनकर

आंखों से बह चला ये परिंदा उड़ चला


मैं मन का परिंदा उड़ चला

मैं मन का परिंदा उड़ चला।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Romance