प्रेम कविता
प्रेम कविता
मैं निशब्द हूँ।
निस्तब्ध हूँ।
निस्पृह हूँ।
रागिनी ले वन-वन डोली
तुम्हारे आदर्शों का निर्वाह करती
चरणदासी हूँ।
कर्मरत, मनरत, तनरत
तीनों का मेल कराती।
कठिन है मेरे प्रेम का कवित्त यह
किन्तु न भूलूँगी तुम्हें
अपने विरह के अश्रुओं से
श्रम से सुख पा रही हूँ।
लोग जिन्हें निष्ठुर नयन कहते हैं।
वही है जो मुझे तुमसे मिलाते हैं।
कैसे कह दूँ सुख-दुःख अपना
यह तो तुम में प्रकट करती
पावनी लीला है।
कुल पर लगे कुलकित कलंक को
धो डालो प्रिये
भोग, रोग, योग का विषम संयोग
तुम्हारे आत्मज्ञान से पीछे छूट गया है
और
इस तरह तुम्हारे विरह में
लिख रही हूँ प्रेम कविता।
आँखों में तुम्हारी छवि को बसाए
देवकी के नन्दन की तरह
भूल सारी समय अवधि कहती हूँ।
आओ कभी
शिव की सती बनूँ।
कृष्ण की राधा बनूँ।
अपने विरह की अग्नि का थाल ले
आरती लूँ।
विरह के दंड की चोट को
अपूर्व अलाप में भगा रही हूँ।
और इतने यत्न प्रयत्न के बाद भी
क्या बताऊँ?
दुःस्वप्न का एक उत्पात
बना रहा है एक दिन रात।
तुम्हारी लाई गई भेंट भी
मेरे विरह रागिनी को कम नहीं कर रही है।
तुम्हारी याद में इस भेंट को पास रख कर
तुम्हारे रूप की अंतिमा छवि को
निहार रही हूँ।
और इस तरह तुम्हारे विरह में
लिख रही हूँ प्रेम कविता।
मेरी आँखों का नीर ही क्या कम है?
तुम्हारी यादों के समंदर में डूबने के लिए।
मेरे विरह का अम्बर भीग गया है
और इंद्र का जाल फ़ैल गया है।
पहली विरह कथा मनु से लेकर
अब तक
और
पहली प्रेम कथा से
अब तक
सबके संयोग वियोग की
अवधि भूल सुधि ले रही हूँ।
और
कर्ण में विभूषित होते कर्णफूलों की,
खुशबू तुम्हें लौटा रही हूँ।
जिनमें पाई थी।
इन्होंने मधुर आवाज़ तुम्हारी
आँखों में बसी तुम्हारी उस प्रिय छवि को
धूमिल न होने दूंगी प्रिये!
और यही मेरी अंतिम भेंट होगी
इस तरह विरह में
लिख रही हूँ प्रेम कविता।