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ritesh deo

Abstract

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ritesh deo

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प्रेम और मौत

प्रेम और मौत

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मौत के पैगां को अपनी जान ए जां समझा था मैं

कितना पागल था ज़मीं को आस्मां समझा था मैं


ख़ूबसूरत इक तराशा संग बुत था वो फ़क़त

जिसको हर मुश्किल में अपना मेहरबां समझा था मैं


बेच डाला है गुलिस्तां का ही उसने हर शजर

शहर ए गुलशन का जिसे इक बाग़बां समझा था मैं


एक सहरा दूर तक नज़़रों में उसकी था बिछा

जिसकी गहराई में इक दरिया रवाँ समझा था मैं


कब कहाँ कैसे अधूरे रह गये हैं वो ख़तूत

इश्क़ की जिनको मुक़म्मल दास्तां समझा था मैं


कब ज़ईफ़ी ने उन्हें कब्ज़े में अपने कर लिया

ख़्वाहिशें जिनको मुसलसल ही जवां समझा था मैं


उम्र की उस रह न पायी हैं अचानक मंज़िलें

जिस का •आशु• ख़ुद को दायम राहे खाँ समझा था मैं।



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