प्रदूषण
प्रदूषण
इतराती, बलखाती
मीलों चलती जाती,
मैं थी स्वच्छ और निर्मल,
जिसमे पूरी धरती समाती
मेरी खूबसूरती से कभी,
होती थी चकाचौंध,
मगर इस पापी मनुष्य ने,
दिया मुझे रौंध
मेरे अंदर धुलते थे,
ना जाने कितनो के पाप,
और सच्चे मन से दिये हुए,
लगते थे श्राप
फिर अचानक से होने लगा,
मेरा रँग भी मैला,
जब पापिओं के पापों का,
दिखने लगा चेहरा
वो मेरे अंदर
अपनी घृणा बरसाते,
मेरे स्वच्छ जल में,
प्रदूषण फैलाते
कुछ बुद्धि जीविओं ने
उन्हे रोका बार - बार,
मगर उन गंवारों ने,
मानी नहीं अपनी हार
आज मेरा दम
धीरे - धीरे निकल रहा है,
प्रदूषण की मार से,
मेरा जल सड़ रहा है
कभी ना गलने वाली,
पोलीथीने मुझे घेरे हैं,
मेरे दूषित जल में,
अब सांपों के डेरे हैं
आज मैं बहुत दुखी हूँ,
सुनाते हुए ये आत्मकथा,
गर पढ़ो इसे सच्चे मन से,
तो माँगना मेरे लिए भी दुआ।