परछाई
परछाई
हम रहते हैं सदा मालिक के साथ
लेकिन कभी न आते उनके हाथ
पेड़ की छाया थका मुसाफिर जाने
धूप में चलते उसको स्वर्ग ही माने
साया जब घनी होती प्रतिच्छाया
आसपासमें रहती सेवामे उपछाया
आभास करता आच्छादित सब
प्रकाश रुकता कहीं बीच में जब
प्रतिच्छाया रचता खग्रास ग्रहण
उपछाया में होता आंशिक ग्रहण
कुंडलाकार ग्रहण होता दृश्यमान
खड़े रहे जब छाया-वलय मेहमान
हम रहते हैं सदा मालिक के साथ
छाया-वलय की साया भिड़ते बाथ।
