पराई नहीं होती है औरतें
पराई नहीं होती है औरतें
कभी मैं किसी के लिए अरमान बन गई,
कभी मैं किसी के लिए मुस्कान बन गई ,
नारी थी मैं बेटी, माँ, बहन और पत्नी बनी,
कितने रूपों में ढलते हुए सबकी जान
बन गई ।
अर्पण किया सब कुछ अपनों के लिए,
संघर्ष की सीमाओं को पार किया अपनों
के लिए,
सबके सामने अपने अस्तित्व का करती
रही ऐलान,
हर सांस हर इशारे पर पर नाचती रही
अपनों के लिए ।
अपने शब्दों की जादूगरी से सबको हँसाया ,
पिता की शान बनी और पति का मान बढ़ाया,
कठिन पगडंडियाँ पर पैदल चल राह दिखा,
फिर भी पराई कह समाज ने मुझे क्यों हर
पल ठुकराया।
हाँ मैं औरत थी जैसा चाहा वो करती रही,
महसूस की पीड़ा दर्द की बूंदों को चखती रही,
भोली थी जंजीरों में कितना बार जकड़ी गई ,
फिर भी सबको मैं अपना मानती रही ।।
