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Krishna Bansal

Abstract

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Krishna Bansal

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पंख

पंख

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एक बार फिर मेरे पंख 

उगने लगे हैं 

वे पंख जो औरों ने 

कतर डाले कई बार 

फिर उगे

फिर काट डाले 

कितनी ही बार 

बार बार उगे 

बार बार कटे।


मैं तड़पती रही 

फड़फड़ाती रही 

जेल में बंद 

कैदी की तरह।


इच्छा है 

अब उड़ान भरने की 

आकांक्षा है अब 

आकाश विचरने की 

वादा रहा मेरा अपने आप से 

अब मैं किसी को अपने रास्ते में न आने दूंगी 

अपने पंख कभी नहीं काटने दूंगी।


यह भी सत्य है 

पिंजरे की आदत 

पता नहीं अब कितनी उड़ान भर पाऊंगी 

पर यह भी जानती हूं 

शक्ति विहीन होकर उड़ते उड़ते गिर कर मरना बेहतर है 

बजाय पिंजरे की सलाखों से 

सिर पटक पटक कर मरने से।


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