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Ajay Singla

Inspirational

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Ajay Singla

Inspirational

पल पल बदलता मैं

पल पल बदलता मैं

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पल पल बदलता मैं 


जब मैं इस संसार में आया 

रोया था बड़ी ज़ोर ज़ोर से 

माँ ने मुझको दूध पिलाया 

देख रहा उसे बड़े गौर से ।


दो महीने का हुआ मैं 

हँसता, जब माँ मुझको देखे 

सोना, खाना, रोना, हँसना 

ज़िंदगी कट रही बड़े मजे से ।


छठे महीने बैठने लगा 

घुटनों के बल लगा था चलने 

मैं आगे, माँ मेरे पीछे 

अजनबियों से लगा था डरने ।


चलूँ पलंग का सहारा ले अब 

दुनिया देखूँ, इच्छा मन में 

रात को तारे, चंद्रमा और 

दिन में सूरज नील गगन में ।


कोई बुलाए तो चिपकूँ माँ से 

पर किसी से झट में घुल मिल जाता 

बुद्धि से थोड़ा समझ गया था 

इनसे मेरा कोई रिश्ता नाता ।


मगन खेल में दिन रात मैं

जो चाहूँ झट से मिल जाए

परिश्रम करना पड़े ना कोई 

भाई, बहन का संग मुझे भाए ।


चार वर्ष जब बीत गए थे 

विद्यालय में तब करी पढ़ाई 

शिक्षकों का मैं बहुत लाड़ला 

ना करता था कभी लड़ाई ।


माता पिता चिंता में रहते 

पढ़ाई में मन क्यों नहीं लगता 

गलियों में कंचे खेलूँ मैं

घर में ना बैठूँ नटखट था ।


दसवीं का बोर्ड सख़्त था 

साथ अपने तनाव ले आया

पढ़ पढ़ तीन वर्ष थे बीते 

मेडिकल में प्रवेश था पाया ।


मिले दोस्त, इतने अच्छे सब 

दिनभर जमघट वो लगाऐं

कभी पढ़ाई हम करते ना 

लगता था अच्छे दिन आए ।


फिर जब परीक्षा का दिन आया 

दिल कहे घोर विपत्ति आयी 

दिन में घबराहट, रात को नींद ना 

पास हुए, थोड़ी शान्ति पाई ।


वो दिन मेरे स्वर्णिम दिन थे 

वो तो याद आज भी आएँ

रंग बिरंगी ख़ुशियों से भरे थे 

वो दिन कैसे वापिस लाऐं ।


विवाह हो गया, पत्नी भी डाक्टर

अस्पताल एक खोल लिया था 

रोगी देखते दिन रात हम 

अपनों को समय कम दिया था ।


नयी पीढ़ी आने का समय था 

लग गए परवरिश में उनकी 

संसार चक्र फिर से घूमा और 

जी लिए यादें बचपन की ।


बहुत समय ऐसे ही बीता 

अब प्रकृति हमें बुलाए

घना जंगल, अपार समुंदर 

गंगा किनारा और पर्वत भाएँ ।


गौमुख, तपोवन ना भूलते 

चूरधार की पदयात्रा याद है 

चन्द्रशीला, तुंगनाथ और 

जो चार धाम किए उसके बाद हैं ।


कोरोना शिक्षा दे गया 

मृत्यु से कोई बच ना पाया 

अध्यात्म की और चल दिए

आत्मवृक्ष की लेने छाया ।


रामायण पढ़ी, पढ़ी भागवत 

आतुर और पुराण पढ़ने को

कहते हैं ग्रंथों में ही ज्ञान है 

तर जाता इनको पढ़ ले जो ।


मन के द्वन्द घटे ना प्रारंभ में 

थोड़े आनन्द से फिर हुआ सामना 

जैसे जैसे उमर बीत रही 

परमानंद की हृदय करे कामना ।


दिन बीते, बीते वर्ष भी 

पाँच दशक बीत गए ऐसे 

भविष्य में क्या हो कोई ना जाने 

मैं भी इसको जानूँ कैसे ।


सोचूँ कि समर्पित करूँ सब उसको 

जीवन में जो मिला, मिलेगा जो भी 

सब कुछ उसपर छोड़ दूँ अब तो 

उसकी माया जाने वो ही ।




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