फितरत
फितरत
मैं वो मौसम नहीं,
जिस की फितरत बदल जाती है ।
मैं वो काली रात हूँ,
जो हर सुबह के बाद आती है ।।
चंद सिक्कों के लिये बेच देता है,
वो अनमोल दुआएँ ।
पर उस फकीर की झोली में,
सिर्फ खैरात आती है ।।
जब कभी भी सोचता हूँ,
अब इश्क़-प्यार के बारे में ।
ना चाहते हुए भी,
लब पे तेरी ही बात आती है ।।
इक ज़ख्म जो दिखता नहीं,
पर नासूर बन गया है ।
अब सीने पे नज़र जाती है,
तो तेरी याद आती है ।
कुछ अजीब-सा रिश्ता,
हो गया है मेरा खुद से ।
होता हूँ भीड़ में फिर भी,
तन्हाइयाँ साथ आती हैं ।।
कुछ किस्से तेरे मेरे मैंने,
बड़ी हिफाज़त से रखे हैं ।
जब भी टटोलता हूँ,
यही दौलत मेरे हाथ आती है ।।
मैं जानता था तुझे हासिल करना,
नामुमकिन ही था ।
कुछ रिश्तों की समझ,
टूटने के बाद ही आती है ।।