पहाड़ पर जिंदगानी
पहाड़ पर जिंदगानी
कहते हैं पहाड़ सी होती जिन्दगानी,
यहाँ पहाड़ पर बसती देखी जिंदगानी ।
दूर देखो तो मंजिल नहीं आती समझ,
पास जाओ तो उलझन तुरन्त जाती सुलझ ।
छल कपट से दूर भावों में घुली मधुरता,
शानो शौकत से दूर, कर्तव्य में पूर्ण सजगता ।
ठूंसे दिखते पत्थर, पर दिल में रमी नरमायई,
जोश जिनके इरादों में वही चढ़ते हैं चढ़ाई ।
धन्यवाद है पर्वतों जो दे रहे हो इतना सहारा ,
ढाल ढाल फसल तो कहीं खाल खाल धारा ।
सर्पीली राहें बनायीं अपना सीना काटकर ,
कच्चे पक्के भवन तराशे काया अपनी छाट कर ।
फैला अपनी बाँहें, बसा गावों को दिया नाम,
चरणों में शहर, विराजमान चोटी पर धाम ।
एक सतह जो ऊंचाई से अभी दिखती नीची ,
कुछ ही मोड़ बाद वही दिखने लगती ऊँची ।
अभी जो ऊंचा है पल में
हो जायेगा नीचा ,
जो दिख रहा नीचा , पल में हो जायेगा ऊँचा ।
ऊँच नीच का यह भेद मिटा देता एक मोड़ ,
और इसी खेल में समाया जीवन का निचोड़ ।
पहाड़ों को चीरती बहती नदी की छटा निराली ,
तो रात को रोशनी घर घर की बन जाती दीवाली ।
किया श्रृंगार ओढ़ जिस हरियाली का परिधान ,
दावानल व कटाव सह तड़प रहा है बेजुबान ।
ढूँढ रहे रौनक दिनोंदिन जो होते जा रहे वीरान ,
सँवार दो वो घर पुनः सुना कोई सुरीली तान ।
रुक जाये यहीं अब पहाड़ का पानी और जवानी ,
क्योंकि पहाड़ सी नहीं पहाड़ पर भी जिन्दगानी ।