प्रेरणा
प्रेरणा
बेजुबान गगन चुम्बी पर्वतों किया है तुमने कैद मुझे ,
मन में उत्साहों के दीप लगते हैं क्यों बुझे बुझे ,
डगर सर्वत्र समस्याओं से लगते हैं क्यों भरे बने।
आशा की किरण दूर नजरों से , दिखते हैं कोहरे घने।
वतन की याद से छाने लगते हैं उदासी के गहरे बादल ,
दिल चाहे कि कोई कहीं से फहरा दे ममता का आँचल।
फिर भी स्वयं को समझाना व देनी पड़ती है दिलासा ,
जब सारा संसार अपना तो व्यर्थ यह बिलखना कैसा।
छायी कितनी हो काली घटा, हो कितना ही घनघोर अंधेरा ,
छंट ही जायेगा कि तय है हर रात के बाद होना एक सबेरा।
शायद अनजाने में पनप रहा कोई अनुकूल विश्वास,
विकट विशाल शिलाओं के सहारे सम्भव नियोजित प्रयास।
वीरों की घाटी में जब भाग्यवश हो ही गया है वास ,
तो क्यों न अडिग मजबूत विचारों को ही लाऊँ पास
क्यों घबराऊँ बनाऊँ स्वयं को घोर निराशा का दास.